दुनिया में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य गिनने का अपना मानक और तरीका होता है। कुछ लोग भौतिक चीजों या धन–दौलत को ज्यादा मूल्य देते हैं, कुछ लोग ज्ञान को ज्यादा मूल्य देते हैं, और कुछ लोग मनोरंजन या शौक को ज्यादा मूल्य देते हैं।
दुनिया के लोगों के विपरीत, हम अदृश्य और अनन्त चीजों की आशा करते हैं। चूंकि हम “स्वर्ग के नागरिक” हैं, इसलिए हमें ‘लोग इसके बारे में क्या सोचेंगे?’ सोचने के बजाय ऐसा सोचना चाहिए कि, ‘परमेश्वर इसके बारे में क्या सोचेंगे?’ इस तरह हमें स्वर्गीय मानकों को प्राथमिकता देने की जरूरत है(2कुर 4:18; फिलि 3:20)।
स्वर्गीय मानकों के अनुसार, हम सभी मूल्यवान हैं। सड़क के किनारे लुढ़कने वाले एक पत्थर के टुकड़े का भी अपना मूल्य होता है और वहां मौजूद होने का कारण है, क्योंकि परमेश्वर ने उसे सृजा है। तो हम मनुष्य कितने अधिक मूल्य के होंगेॐ! क्या आपको लगता है कि परमेश्वर ने व्यर्थ जीवों की सृष्टि करके अपना समय व्यर्थ गंवाया? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर ने हमें योग्य ठहराकर दुनिया भर के सात अरब लोगों को सुसमाचार का प्रचार करने का मिशन सौंपा है। इसलिए हम सचमुच मूल्यवान लोग हैं जिन्हें सबसे मूल्यवान कार्य सौंपा गया है।
भले ही हम कोई फल उत्पन्न न करें, लेकिन हमें यह सोचते हुए अपना मूल्य कम नहीं करना चाहिए कि, ‘दूसरे सदस्य फल उत्पन्न करते हैं, लेकिन मैं क्यों नहीं कर पाता?’ और हमें हर चीज में अपना सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए। तब परमेश्वर हमारे छोटे प्रयास और प्रार्थनाओं को बड़ा मानेंगे और कहीं न कहीं हमें सुंदर फल उत्पन्न करने की अनुमति देंगे।
स्वर्गीय मूल्य क्या है, और स्वर्गीय गणना–पद्धति क्या है? आइए हम लूका के 21वें अध्याय में उसका जवाब देखें।
फिर उसने आंख उठाकर धनवानों को अपना अपना दान भण्डार में डालते देखा। उसने एक कंगाल विधवा को भी उसमें दो दमड़ियां डालते देखा। तब उसने कहा, “मैं तुम से सच कहता हूं कि इस कंगाल विधवा ने सब से बढ़कर डाला है। क्योंकि उन सब ने अपनी अपनी बढ़ती में से दान में कुछ डाला है, परन्तु इसने अपनी घटी में से अपनी सारी जीविका डाल दी है।” लूक 21:1–4
दो दमड़ियों का मूल्य इतना बहुत छोटा है कि संसार के मानकों के अनुसार कोई उस पर ध्यान नहीं देगा। लेकिन यीशु ने ध्यान से देखा कि कंगाल विधवा ने क्या दिया, और कहा कि अमीरों के सभी दानों से कंगाल विधवा का दान बड़ा था। इस पृथ्वी की गणना–पद्धति के अनुसार, दो दमड़ियों का मूल्य बहुत ही कम था, परन्तु यीशु ने उसके दान में उसके सुंदर विश्वास और ईमानदारी को देखा, है न?
यीशु ने क्यों इस दृश्य का वर्णन किया और इसे बाइबल में लिखने दिया, ताकि यह आज हम तक पहुंच सके? हमें इसके बारे में ध्यान से सोचना चाहिए। चाहे कम मूल्य वाली चीज हो, यदि हम विश्वास के साथ और पूरी ईमानदार से उसे देते हैं, तो परमेश्वर उसे खुशी से ग्रहण करते हैं। परमेश्वर के वचन का आज्ञापालन करने के हमारे एक छोटे से प्रयास को भी परमेश्वर बड़ा मानते हैं। वे जो अधिक क्षमता के साथ उत्कृष्ट उपलब्धि हासिल करते हैं, उनकी तुलना में परमेश्वर उन लोगों को और अधिक मूल्यवान मानते हैं जो थोड़ी सामर्थ्य के साथ अपना हर संभव प्रयास करते हैं(प्रक 3:8)।
सांसारिक मानकों के अनुसार हम छोटे, कमजोर और मूल्यहीन हैं। लेकिन स्वर्गीय मूल्य और स्वर्गीय गणना–पद्धति के अनुसार हमें परमेश्वर के द्वारा बहुत बहुमूल्य जीव माना जाता है। इसलिए पिता और माता को प्रसन्न करने के इरादे के साथ, यदि हम सब मिलकर सुसमाचार के कार्य के लिए छोटी सी प्रार्थनाओं और ईमानदार मनों को इकट्ठा करें, तो यह पिता और माता को बड़ी खुशी दे सकेगा, है न? ‘चाहे मेरे पास छोटी क्षमता हो, लेकिन मैं कैसे उस क्षमता का परमेश्वर के लिए मूल्यवान तरीके से उपयोग करूं?’ ऐसा सोचते हुए परमेश्वर से मदद मांगने के लिए आग्रहपूर्वक विनती करना, खुद को बेहतर रूप में बदलने के लिए छोटा सा प्रयास करना, और परमेश्वर के वचन का पालन करने की लालसा रखना, ये सभी चीजें चाहे दूसरे लोगों को बड़ी या महत्वपूर्ण नहीं लगतीं, लेकिन स्वर्गीय मूल्य और स्वर्गीय गणना–पद्धति के अनुसार ये सभी चीजें सच में बहुत ही मूल्यवान हैं। हमें इस तथ्य को मन में रखना चाहिए।
प्रेरित ऐसा मन रखकर हर चीज में, चाहे अत्यंत छोटी सी चीज हो, परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहे और अपनी पूरी निष्ठा से काम किया। अब आइए हम प्रथम चर्च के इतिहास के द्वारा देखें कि उन लोगों के पास किस प्रकार का विश्वास था जिन्होंने स्वर्गीय मूल्य को महसूस किया था।
जब उन्होंने पतरस और यूहन्ना का साहस देखा, और यह जाना कि ये अनपढ़ और साधारण मनुष्य हैं, तो आश्चर्य किया; फिर उनको पहचाना, कि ये यीशु के साथ रहे हैं। उस मनुष्य को जो अच्छा हुआ था, उनके साथ खड़े देखकर, वे विरोध में कुछ न कह सके। परन्तु उन्हें सभा के बाहर जाने की आज्ञा देकर, वे आपस में विचार करने लगे, “हम इन मनुष्यों के साथ क्या करें? क्योंकि यरूशलेम के सब रहनेवालों पर प्रगट है, कि इनके द्वारा एक प्रसिद्ध चिन्ह दिखाया गया है; और हम उसका इन्कार नहीं कर सकते। परन्तु इसलिये कि यह बात लोगों में और अधिक फैल न जाए, हम उन्हें धमकाएं, कि वे इस नाम से फिर किसी मनुष्य से बातें न करें।” तब उन्हें बुलाया और चेतावनी देखकर यह कहा, “यीशु के नाम से कुछ भी न बोलना और न सिखाना।” परन्तु पतरस और यूहन्ना ने उनको उत्तर दिया, “तुम ही न्याय करो; क्या यह परमेश्वर के निकट भला है कि हम परमेश्वर की बात से बढ़कर तुम्हारी बात मानें। क्योंकि यह तो हम से हो नहीं सकता कि जो हम ने देखा और सुना है, वह न कहें।” प्रे 4:13–20
प्रेरितों ने यीशु के आखिरी निवेदन का पालन करके सामरिया और पृथ्वी की छोर तक सुसमाचार का प्रचार करने में अपना पूरा हृदय उंडेल दिया। भले ही वे अनपढ़ और साधारण मनुष्य थे, लेकिन उनके मुंह से निकलने वाले शब्द पढ़े–लिखे लोगों के किसी भी शब्द से अधिक शक्तिशाली थे। इससे यहूदी धर्म के नेता चकित हुए, और उन्होंने प्रेरितों को धमकी देकर कहा कि लोगों के सामने यीशु के नाम से कुछ भी न बोलना और न सिखाना। लेकिन प्रेरितों ने यह कहते हुए सीधे से इनकार किया कि, “तुम ही न्याय करो; क्या यह परमेश्वर के निकट भला है कि हम परमेश्वर की बात से बढ़कर तुम्हारी बात मानें। क्योंकि यह तो हम से हो नहीं सकता कि जो हम ने देखा और सुना है, वह न कहें।” इस तरह, प्रेरितों ने संसार के मानक नहीं, लेकिन परमेश्वर के मानक का पालन करने के लिए अपनी दृढ़ इच्छा व्यक्त की।
चूंकि उन्होंने परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर अपना मानक निर्धारित किया था, इसलिए चाहे बाहर से कितनी भी दिक्कतें उनके सामने आएं, पर उन्होंने कभी हार नहीं मानी। सुसमाचार उन लोगों के द्वारा अधिक तेजी से फैलाया गया जिन्होंने स्वर्गीय मूल्य को और स्वर्गीय गणना–पद्धति को सही तरह से समझा।
‘परमेश्वर कैसे इसका न्याय करेंगे?’ यही स्वर्गीय गणना–पद्धति और स्वर्गीय मानक है। ‘लोग इसके बारे में क्या सोचेंगे?’ यह विचार यदि पहले हमारे मन में आता है, तो ‘परमेश्वर इसके बारे में क्या सोचेंगे?’ इस स्वर्गीय मानक से हम हट जाएंगे। जब हम हमेशा पहले यह सोचें, ‘आज जो काम मैंने किया है, उसके बारे में परमेश्वर क्या सोचेंगे?’ ‘आज जो विचार मैंने किया है, उसके बारे में परमेश्वर क्या सोचेंगे?’ तब हम अपने पास सही ढंग से स्वर्गीय मानक रख सकते हैं।
“क्या हम ने तुम्हें चिताकर आज्ञा न दी थी कि तुम इस नाम से उपदेश न करना? तौभी देखो, तुम ने सारे यरूशलेम को अपने उपदेश से भर दिया है और उस व्यक्ति का लहू हमारी गर्दन पर लाना चाहते हो।” तब पतरस और अन्य प्रेरितों ने उत्तर दिया, “मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही हमारा कर्तव्य है।”… यह सुनकर वे जल गए, और उन्हें मार डालना चाहा। परन्तु गमलीएल नामक एक फरीसी ने जो व्यवस्थापक और सब लोगों में माननीय था, न्यायालय में खड़े होकर प्रेरितों को थोड़ी देर के लिये बाहर कर देने की आज्ञा दी। तब उसने कहा… इसलिये अब मैं तुम से कहता हूं, इन मनुष्यों से दूर ही रहो और इन से कुछ काम न रखो; क्योंकि यदि यह धर्म या काम मनुष्यों की ओर से हो तब तो मिट जाएगा; परन्तु यदि परमेश्वर की ओर से है, तो तुम उन्हें कदापि मिटा न सकोगे। कहीं ऐसा न हो कि तुम परमेश्वर से भी लड़नेवाले ठहरो। तब उन्होंने उसकी बात मान ली; और प्रेरितों को बुलाकर पिटवाया; और यह आदेश देकर छोड़ दिया कि यीशु के नाम से फिर कोई बात न करना। वे इस बात से आनन्दित होकर महासभा के सामने से चले गए, कि हम उसके नाम के लिये अपमानित होने के योग्य तो ठहरे। वे प्रतिदिन मन्दिर में और घर घर में उपदेश करने, और इस बात का सुसमाचार सुनाने से कि यीशु ही मसीह है न रुके। प्रे 5:28–42
चूंकि प्रथम चर्च का सुसमाचार अधिक से अधिक फैलाया गया, एक दिन में तीन हजार या पांच हजार लोगों का बपतिस्मा हुआ। इसे देखकर यहूदी लोग बहुत घबरा गए, और उन्होंने प्रेरितों को सुसमाचार का प्रचार करने से रोकने के लिए धमकी दी और रुकावट डाली। लेकिन प्रेरितों ने सोचा कि उन्हें मनुष्यों की अपेक्षा परमेश्वर की बात माननी चाहिए, और उन्होंने परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर मन्दिर और घर–घर में हर दिन इस सुसमाचार का कि यीशु मसीह है, उपदेश देना और प्रचार करना कभी नहीं छोड़ा।
परमेश्वर के लोगों ने पिता के युग में यहोवा के नाम का प्रचार किया, और उन्होंने पुत्र के युग में यीशु मसीह के नाम का प्रचार किया। हम अभी पवित्र आत्मा के युग में जी रहे हैं। इस युग में हमें मसीह आन सांग होंग और नई यरूशलेम स्वर्गीय माता, यानी पवित्र आत्मा और दुल्हिन की महिमा की घोषणा करने से और सुसमाचार का प्रचार करने से नहीं रुकना चाहिए। शैतान ने प्रथम चर्च के दिनों में भी परमेश्वर के सत्य की निन्दा की थी और वह आज भी कर रहा है। जैसे–जैसे पवित्र आत्मा की आग और अधिक तेजी पकड़ रही है, शैतान डर के मारे कांप रहा है। शैतान की सभी रुकावटों के बावजूद, उस पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा जो प्रथम चर्च के पवित्र आत्मा से सात गुणा अधिक शक्तिशाली है, दुनिया भर में परमेश्वर की संतान और अधिक तेजी से पिता और माता की बांहों में लौट रही हैं।
बाइबल कहती है कि यदि कोई योजना या काम परमेश्वर की ओर से हो तो वह कभी नहीं मिटेगा। हमें स्वर्गीय मूल्य और स्वर्गीय गणना–पद्धति को अपने मन में रखते हुए सुसमाचार के सेवकों के रूप में परमेश्वर के दिए हुए कर्तव्यों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए।
सिर्फ प्रथम चर्च के युग में नहीं, बल्कि पिता के युग में भी ऐसे लोग थे जो स्वर्गीय मूल्य पर ध्यान देते थे। उनके मामलों के द्वारा आइए हम फिर से सोचें कि इस संसार में रहते हुए हमें किस चीज को ज्यादा मूल्य देना चाहिए।
विश्वास ही से मूसा ने सयाना होकर फिरौन की बेटी का पुत्र कहलाने से इन्कार किया। इसलिये कि उसे पाप में थोड़े दिन के सुख भोगने से परमेश्वर के लोगों के साथ दुख भोगना अधिक उत्तम लगा। उसने मसीह के कारण निन्दित होने को मिस्र के भण्डार से बड़ा धन समझा, क्योंकि उसकी आंखें फल पाने की ओर लगी थीं। इब्र 11:24–26
उस समय मूसा बड़े ऊंचे पद पर था; वह मिस्र के सिंहासन को प्राप्त कर सकता था। लेकिन उसने फिरौन की बेटी का पुत्र कहलाने से इन्कार किया और सांसारिक महिमा को अस्वीकार किया। उसने स्वेच्छा से परमेश्वर के लोगों के साथ दुख झेलना चुना और मसीह के लिए अपमान झेलने को मिस्र के धन भंडारों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान माना।
इससे हम देख सकते हैं कि मूसा ने सांसारिक मूल्यों की अपेक्षा स्वर्गीय मूल्यों को चुना। मूसा ने इस पृथ्वी के क्षणिक सुख भोगों की अपेक्षा परमेश्वर के लोगों के साथ दुख झेलने को और नबी के रूप में उनकी अगुवाई करने को अधिक मूल्यवान माना। इसी कारण परमेश्वर ने उसे स्वर्ग की बड़ी महिमा दी।
विश्वास ही से नूह ने उन बातों के विषय में जो उस समय दिखाई न पड़ती थीं, चेतावनी पाकर भक्ति के साथ अपने घराने के बचाव के लिये जहाज बनाया, और उसके द्वारा उसने संसार को दोषी ठहराया; और उस धर्म का वारिस हुआ जो विश्वास से होता है। इब्र 11:7
सांसारिक मूल्यों और सांसारिक गणना–पद्धति के अनुसार सिर्फ मूसा ही नहीं, बल्कि नूह भी कुछ व्यर्थ और बेहूदा काम करता दिखाई दिया। परमेश्वर ने नूह को तीन मंजिला जहाज बनाने के लिए कहा जिसकी लम्बाई 135 मीटर थी। नूह ने ठीक परमेश्वर के द्वारा निर्धारित रूपरेखा के अनुसार जहाज बनाया। वह विशाल जहाज नदी या समुद्र के पास नहीं बनाया गया और वह लाभ कमाने वाला व्यापारी जहाज या यात्री जहाज भी नहीं था। जहाज में न तो दिशा नियंत्रित करने के लिए कोई पतवार थी और न ही जहाज को चलाने के लिए कोई मस्तूल था। सांसारिक गणना–पद्धति के अनुसार ऐसा लगता था कि जहाज बनाना तो पैसे और श्रम की बर्बादी थी।
लेकिन नूह ने पूरी तरह से इस पर विश्वास किया कि आदि से अन्त को जानने वाले परमेश्वर के हर एक वचन में अवश्य ही हमारी भलाई के लिए कुछ योजना है। इस विश्वास के साथ उसने परमेश्वर के वचन का पालन किया और परमेश्वर के अद्भुत कार्य में भाग लिया। अपने आसपास के बहुत से लोगों के द्वारा निन्दित और अपमानित किए जाने पर भी, वह इस कारण से अन्त तक जहाज बना सका, क्योंकि उसने सिर्फ स्वर्गीय मूल्यों पर ध्यान दिया और स्वर्गीय गणना–पद्धति को अपने जीवन में लागू किया। उसने संपूर्ण विश्वास किया कि परमेश्वर के वचन का आज्ञापालन करना निश्चय ही आगे महान आशीष लाएगा, और निर्माण कार्य को संचालित किया। इसके परिणाम में, वह आखिरकार उस उद्धार के जहाज का निर्माण कर सका, जो मानवजाति को मृत्यु से बचा सका और संसार के प्राणियों को विलुप्त होने से बचा सका।
मूसा ने फिरौन की बेटी का पुत्र कहलाने से इन्कार किया और परमेश्वर के लोगों के साथ दुख भोगना चुना, और नूह ने जहाज के निर्माण में बहुत अधिक समय और प्रयास लगाया। दरअसल, इस संसार के लोग उनके जीवन को नहीं समझ सकते थे। इसी कारण बाइबल कहती है कि यह संसार उनके विश्वास के योग्य नहीं था।
इन्होंने विश्वास ही के द्वारा राज्य जीते; धर्म के काम किए; प्रतिज्ञा की हुई वस्तुएं प्राप्त की; सिंहों के मुंह बन्द किए; आग की ज्वाला को ठंडा किया; तलवार की धार से बच निकले; निर्बलता में बलवन्त हुए; लड़ाई में वीर निकले; विदेशियों की फौजों को मार भगाया। स्त्रियों ने अपने मरे हुओं को फिर जीवित पाया; कितने तो मार खाते खाते मर गए और छुटकारा न चाहा, इसलिये कि उत्तम पुनरुत्थान के भागी हों। कई एक ठट्ठों में उड़ाए जाने; और कोड़े खाने वरन् बांधे जाने; और कैद में पड़ने के द्वारा परखे गए। पथराव किए गए; आरे से चीरे गए; उनकी परीक्षा की गई; तलवार से मारे गए; वे कंगाली में, और क्लेश में, और दु:ख भोगते हुए भेड़ों और बकरियों की खालें ओढ़े हुए, इधर उधर मारे मारे फिरे; और जंगलों, और पहाड़ों, और गुफाओं में, और पृथ्वी की दरारों में भटकते फिरे। संसार उनके योग्य न था। इब्र 11:33–38
विश्वास के सभी पूर्वज स्वर्गीय मूल्यों के लिए पूरी तरह समर्पित थे। चूंकि प्रथम चर्च के संतों ने अपना पूरा जीवन स्वर्गीय मूल्यों के लिए समर्पित कर दिया, इसलिए उन्होंने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करते हुए अपने आसपास के सभी लोगों को निडरता से सुसमाचार का प्रचार किया, जिसके द्वारा मसीह का सुसमाचार यरूशलेम में, समूचे यहूदिया और सामरिया में और पृथ्वी की छोर तक बड़ी तेजी से फैल सका।
उनकी तरह, हम भी आज इस पृथ्वी पर रहनेवाले बहुत से लोगों को अनन्त एवं सुन्दर स्वर्ग का राज्य बता रहे हैं और प्रचार के द्वारा उनके हृदयों में स्वर्ग के शानदार रंग चमकाने की भूमिका निभा रहे हैं। इस युग में दिए गए मिशन के तहत पूरी दुनिया के सभी सात अरब लोगों को सुसमाचार का प्रचार करने के लिए, हमें प्रथम चर्च के संतों के समान पहले स्वर्गीय मूल्यों के महत्व को पूरी तरह अपने अन्दर जागृत करने की जरूरत है। हम चाहे जो भी करें, उसे हमेशा खुद से यह पूछते हुए जांचें, ‘परमेश्वर इसके बारे में क्या सोचेंगे?’ यदि हमारी योजना या काम मनुष्य की ओर से हो, तो वह मिटेगा, परन्तु परमेश्वर की ओर से हो, तो वह कभी नहीं मिटेगा।
नूह ने परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार जहाज बनाया। उसी तरह हम भी परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार सुसमाचार का प्रचार सामरिया और पृथ्वी की छोर तक कर रहे हैं। इसमें यह अर्थ निहित है कि परमेश्वर की बुलाहट के योग्य जीवन जीने के द्वारा और मूसा की तरह परमेश्वर से पुरस्कार पाने की आशा रखते हुए क्षणिक दुख को सहने के द्वारा, भविष्य में हमें दी जाने वाली अधिक महिमामय दुनिया में हम परमेश्वर से और बड़ी आशीष पाना चाहते हैं।
बाइबल कहती है कि जो बहुतों को धर्मी बनाते हैं, वे स्वर्ग में सर्वदा तारों के समान प्रकाशमान रहेंगे(दान 12:3)। मैं आशा करता हूं कि आप सभी ऐसा महान विश्वास रखें और स्वर्गीय मूल्यों को गिनने का सही मानक रखें, ताकि आप अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर की इच्छा के प्रति और अधिक आज्ञाकारी रह सकें। जब आप स्वर्ग की महिमा को इस पृथ्वी की महिमा से और ज्यादा मूल्यवान मानें, तो आप प्रचार के कार्य में पूरी तरह से अपने आपको समर्पित कर सकते हैं और परमेश्वर का वचन सुनने वाली हर एक आत्मा की माता के हृदय के साथ देखभाल कर सकते हैं।
कृपया किसी भी चीज की उपेक्षा न कीजिए, चाहे वह एक छोटी सी प्रार्थना हो, चाहे एक जरा सा पश्चाताप हो और चाहे एक थोड़ा सा जोश हो। बहुत ही छोटी प्रतीत होने वाली चीजें बिल्कुल भी छोटी नहीं होतीं। परमेश्वर उन चीजों को जो हमने अपने सच्चे विश्वास और ईमानदारी के साथ की हैं, बाहर से बड़ी दिखाई देने वाली चीजों से अधिक मूल्यवान मानते हैं। वे छोटी–छोटी चीजें इकट्ठी होकर बड़ी चीजें बन जाती हैं। इसके परिणाम में आजकल हजार फल, दस हजार फल या लाखों फल एक छोटी अवधि में उत्पन्न हो रहे हैं।
हम सब एक देह हैं, क्योंकि हम सभी एक ही रोटी में भागी होते हैं(1कुर 10:16–17, 12–27)। यदि हम किसी काम को तेजी और प्रभावी तरीके से करने में कमजोर हैं और हम में जोश की कमी है, तो कहीं से किसी एक सदस्य के जोश की छोटी सी चिंगारी एक सशक्त माध्यम बन सकती है और पूरी दुनिया के सुसमाचार के कार्य को तीव्र गति देने वाला सबसे बड़ा कारक बन सकती है। इसलिए आइए हम किसी चीज का बाहर दिखाई देने वाली संख्या या मात्रा से न्याय न करें। चाहे कोई चीज छोटी प्रतीत होती हो, वह स्वर्गीय गणना–पद्धति के अनुसार कभी छोटी नहीं होती। इसे अपने मन में रखते हुए आइए हम मनुष्यों के न्याय, मानक और मूल्यों के बजाय स्वर्गीय मानक और मूल्यों पर अधिक ध्यान दें और आज भी परमेश्वर के वचन के अनुसार विश्वास का सुंदर जीवन जीएं।