कठिनाई और दुख का सामना करते हुए

प्रेरितों के काम 21:7–16

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यह तब हुआ जब पौलुस और उसके साथी कैसरिया में आए और फिलिप्पुस के घर जाकर उसके साथ ठहरे।

एक दिन, यहूदिया से अगबुस नामक एक नबी पौलुस से मिलने आया। उसने एक कमरबंध उठाकर उससे अपने ही पैर और हाथ बांध लिए और बोला,

“पवित्र आत्मा यह कहता है, ‘यरूशलेम में यहूदी लोग, जिसका यह कमरबंध है, उसे ऐसे ही बांध कर अन्यजातियों के हाथ में सौंप देंगे।”

वह कमरबंध जो अगबुस अपने हाथों और पैरों में बांधे था, पौलुस का था। वहां के लोगों ने रोते हुए पौलुस से यरूशलेम न जाने की विनती की। इस पर पौलुस ने उत्तर दिया,

“इस प्रकार रो–रो कर मेरा दिल तोड़ते हुए यह तुम क्या कर रहे हो? मैं तो यरूशलेम में न केवल बांधे जाने के लिए बल्कि प्रभु यीशु मसीह के नाम पर मरने तक को तैयार हूं।”

पौलुस के शब्द सुनकर वे यह कहकर चुप हो गए, “प्रभु की इच्छा पूरी हो।”

कुछ दिनों बाद पौलुस और उसके साथी यरूशलेम को चल दिए।

भले ही प्रेरित पौलुस ने जाना कि वह यरूशलेम में विरोधियों के द्वारा किस प्रकार की कठिनाइयों से गुजरेगा, फिर भी वह सुसमाचार के लिए अपने पूर्व निर्धारित मार्ग पर चला। उसने सुसमाचार का प्रचार करने के दौरान होने वाली सभी कठिनाइयों और दुखों से हार न मानते हुए निडरतापूर्वक उनका सामना किया।

विश्वास के पूर्वजों ने धर्मी की राह पर चलते हुए अन्याय से दुख उठाया और क्लेश सहा, लेकिन उससे छुटकारा पाने से मना कर दिया। उन्होंने सिर्फ स्वर्ग की आशीषें पाने की बाट जोहते हुए परमेश्वर को याद किया और अपने मिशन को पूरा करने का लक्ष्य रखा।

जो लोग परमेश्वर के राज्य के लिए धार्मिक जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें अवश्य दुखों का सामना करना ही है। संसार उनके साथ भी वैसा ही बुरा बर्ताव करता है जैसा उसने धरती पर आए परमेश्वर से नफरत की है और इनकार किया है। यह इसलिए है कि वे जिस मार्ग पर परमेश्वर चले हैं उसी मर्ग पर चलते हैं।

उन परमेश्वर के बलिदान को याद करते हुए जो हमसे पहले सुसमाचार के मार्ग पर चले हैं, आइए हम अपने सुसमाचार के मिशन को कभी न भूलें। कोई भी कठिनाई सामने आने पर भी, जिनमें न डगमगाने का दृढ़ संकल्प है और पीछे न हटने का निश्चय और साहस है, उन्हें स्वर्ग में अकल्पनीय रूप से अद्भुत पुरस्कार दिए जाएंगे।