परमेश्वर तब प्रसन्न होते हैं जब उनकी संतानें एकजुट होती हैं(भज 133:1; फिल 2:1-2)। हालांकि, यदि हम एक दूसरे के साथ असभ्य व्यवहार करते और एक दूसरे के प्रति विचारशील नहीं रहते, तो एक बनना मुश्किल होगा। इसलिए, हमें प्रेम के प्रति विनम्र और विचारशील होकर एकता को पूरा करना चाहिए जिससे परमेश्वर प्रसन्न होते हैं।
फिर, आइए हम देखें कि हमें एक दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।
पहला, हमें शिष्टाचार के साथ एक दूसरे से प्रेम करना चाहिए।
मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं कि एक दूसरे से प्रेम रखो; जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। यूह 13:34
परमेश्वर ने कहा कि हमें एक दूसरे से प्रेम करना चाहिए जैसे उन्होंने हमसे प्रेम किया। हम नई वाचा के द्वारा परमेश्वर का मांस और लहू प्राप्त करके परमेश्वर के साथ एक देह बन गए हैं, और हम भाइयों और बहनों के साथ भी एक देह बन गए हैं। इसलिए, हमें सच्चे हृदय के साथ अपने भाइयों और बहनों से प्रेम करना और उनकी देखभाल करनी चाहिए।
परमेश्वर ने अपने प्रेम की व्याख्या इस प्रकार की कि, “प्रेम अनरीति नहीं चलाता”(1कुर 13:4-5)। इसलिए यदि हम परमेश्वर के प्रेम का अभ्यास करना चाहते हैं, तो हमें अपने भाइयों और बहनों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। जिस किसी से भी हम मिलते हैं, हमें पहले हार्दिकता से उनका अभिवादन करना चाहिए, उनके साथ बात करते समय असभ्य शब्दों का उपयोग करने से बचना चाहिए, और विनम्र शब्दों का उपयोग करना चाहिए। इसके अलावा, हमें उनके साथ दयालु और विनम्र व्यवहार करना चाहिए।
दूसरा, हमें उन सदस्यों के प्रति विचारशील रहना चाहिए जो विश्वास में कमजोर हैं।
जिस तरह परमेश्वर ने हमसे प्रेम किया और हमें गले लगाया जो कमजोर हैं, ठीक उसी तरह हमें उन सदस्यों के प्रति विचारशील रहना चाहिए जो विश्वास में कमजोर हैं या जिन्होंने अभी विश्वास का जीवन शुरू किया है।
अत: हम बलवानों को चाहिए कि निर्बलों की निर्बलताओं को सहें, न कि अपने आप को प्रसन्न करें। रो 15:1
वचन, “अत: हम बलवानों को चाहिए कि निर्बलों की निर्बलताओं को सहें,” इसका मतलब है कि हमें निर्बलों के प्रति विचारशील रहना चाहिए और उनकी देखभाल करनी चाहिए। इन वचनों के अनुसार, हमें नए सदस्यों और उन सदस्यों की, जो विश्वास में कमजोर हैं, हार्दिकता से देखभाल करनी चाहिए(रो 14:1-3)। साथ ही, हमें उन्हें विनम्रता से उन बातें सिखानी चाहिए जो वे अच्छी तरह से नहीं जानते, ताकि वे हमारे कार्यों के द्वारा परमेश्वर के प्रेम को महसूस कर सकें।
“आपको मेरी बात सुननी होगी क्योंकि मैं आपसे ऊंचा हूं,” “आपको इसे स्वीकार करना होगा क्योंकि मैं अगुआ सदस्य हूं,” इस तरह के विचार परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते। जितना पहले हम सत्य में आए हैं, उतना अधिक हमें अपने आप को नीचा करना चाहिए और सेवा करने के मन से सदस्यों से प्रेम करना चाहिए।
बाइबल निरंतर ऐसी शिक्षाएं देती है कि, “एक दूसरे से प्रेम करो,” और “एक ही मनसा रखो।” परमेश्वर की इच्छा का पालन करके, हमें शिष्टाचार के साथ एक दूसरे से प्रेम करना और एक दूसरे की सेवा करनी चाहिए, और साथ ही उन सदस्यों के प्रति विचारशील रहना चाहिए जो विश्वास में कमजोर हैं, ताकि हम संपूर्ण एकता को पूरा कर सकें।
- पुनर्विचार के लिए प्रश्न
- नए सदस्यों का या उन सदस्यों का जो विश्वास में कमजोर हैं, मार्गदर्शन करते समय, हमें किन बातों पर ध्यान देना चाहिए?
- आइए हम सदस्यों के बीच पालन किए जानेवाले शिष्टाचार के बारे में सोचें।