
एक दिन मुझे एक दही फ्रिज में रखा हुआ मिला। कुछ समय पहले मैंने दही के डिब्बों का एक बंडल खरीदा था, और मुझे लगा था कि मैंने सारा दही खत्म कर दिया है, पर फ्रिज में उनमें से एक दही बचा रह गया था। भले ही उसे खाने की समय–सीमा समाप्त हो गई थी, लेकिन मैं उसे फेंक कर बर्बाद करना नहीं चाहती थी। मैंने सोचा कि दही वैसे भी एक खमीरी पेय है, तो इससे कुछ नहीं होगा।
जब मैं उसे पीने वाली थी, मेरी बेटी रसोई में आई।
“मां, क्या आप दही पीएंगी? क्या मुझे थोड़ा मिल सकता है?”
“नहीं, यह खराब हो चुका है। तुम्हारे पेट में दर्द हो जाएगा।”
“तब आपने इसे अभी तक क्यों रखा हुआ है? इसे फेंक दीजिए।”
“मैं… मैं बस इसे फेंकने ही वाली थी।”
“मां, इसे न पीजिए। ऐसा न सोचिए कि यह बेकार हो जाएगा। बस इसे फेंक दीजिए।”
उसने गंभीर आवाज में मुझे उसे फेंक देने के लिए कहा, और एक गिलास पानी पिया और फिर अपने कमरे में वापस चली गई। उसके चले जाने के बाद, मैंने जल्दी से गटागट दही पी लिया। उसने मुझे उसे फेंक देने के लिए कहा था, लेकिन मैं उसे बेकार नहीं करना चाहती थी। आखिरकार, मैंने यह सोचकर सारा का सारा पी लिया कि एक बार जब वह मेरे शरीर में प्रवेश करेगा, तो मेरा मजबूत पेट उसे संभाल लेगा। मेरे सारे घरेलू काम खत्म करके सोने के लिए तैयार होने तक सब कुछ ठीक था। लेकिन मेरे पेट में गड़गड़ाहट होने लगी और गर्जन की सी आवाज आने लगी। मेरे पति जो मेरे पास सो रहे थे, उस आवाज से जाग उठे।
“यह कैसी आवाज है?”
मैंने अपने पेट को कसकर पकड़ा और उन्हें दही के बारे में सारी बातें बताईं। फिर उन्होंने झिड़की के स्वर में कहा,
“तुमने उसे क्यों पिया? क्या तुमने सोचा कि वह तो बाहर से अच्छा दिखता है, इसलिए सब कुछ ठीक होगा?”
समय गुजरने पर मेरे पेट का दर्द गंभीर हो गया। दर्द सहना और अधिक कठिन हो गया।
पूरी रात बार–बार बाथरूम जाने के कारण मैं बिल्कुल भी सो नहीं पाई। मेरे पति भी मुझे दवाइयां देते हुए मेरी देखभाल करने के कारण सो नहीं पाए। मैं सुबह बड़ी मुश्किल से अपने बिस्तर से उठी और शीशे के सामने बैठी। मेरा चेहरा पीला पड़ा हुआ था, और मेरी आंखों के नीचे काले घेरे थे। मैंने अपने बच्चों के लिए नाश्ता बनाने की कोशिश की, लेकिन मैं अपने कांपते हुए हाथों के साथ कुछ नहीं कर पाई। मेरे पति मुझे दिन में आराम करने के लिए कहकर नाश्ता किए बिना, थके–मांदे काम पर निकल गए।
मेरे पति और मेरे बच्चों के चले जाने के बाद भी, मुझे काफी समय तक पेट में दर्द महसूस होता रहा, और आखिरकार अस्पताल में एक इंजेक्शन लगाने के बाद मुझे राहत–सी महसूस हुई। मुझे यह सोचकर खुद पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई कि मुझे उस छोटे से दही के डिब्बे को पीने से क्या फायदा हुआ जो खाने लायक भी नहीं था।
आत्मिक रूप में भी मैं अक्सर ऐसा ही कार्य करती हूं। ‘कुछ नहीं होगा। मैं ठीक रहूंगी!’ इस तरह से सोचते हुए, मैंने उन चीजों को नहीं निकाला जिन्हें मुझे निकाल देना चाहिए था, और इससे मेरी आत्मा को अक्सर नुकसान पहुंचाया गया।
जिस प्रकार मेरे स्वास्थ्य के लिए मुझे भोजन की समय–सीमा को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था, वैसे ही मुझे अपनी आत्मा के स्वास्थ्य के लिए परमेश्वर के वचनों को हल्के में नहीं लेना चाहिए। अब से मुझे अपनी आत्मा के लिए जो कुछ भी हानिकारक और बुरा है उससे बचे रहना चाहिए। अपनी लापरवाही और मूर्खता के कारण मैं अनावश्यक दर्द से पीड़ित नहीं होना चाहती। इन सबसे बढ़कर, मैं उन स्वर्गीय माता के मन के बोझ को थोड़ा हल्का करना चाहती हूं जो मेरे बीमार होने पर चिंतित और बेचैन होकर मेरी देखभाल करती हैं।