आजकल यीशु के पवित्र चित्र में, जो यीशु का चित्रण करता है, यीशु की आकृति, जिसकी कल्पना लोग करते हैं, अति पवित्र और ईश्वरीय दिखती है। लेकिन जब यीशु आया, उस समय के लोग ‘यीशु को कैसा समझते थे?’, ‘जिस चर्च को यीशु ने स्थापित किया उसे कैसे देखते थे?”, और “स्वर्ग के सुसमाचार को जिसे यीशु ने सुनाया उसे कैसे सोचते थे?” जब तक हम इसे न जाने तब तक हम मसीह को नहीं जान सकते।
मसीह मूल रूप से परमेश्वर का स्वरूप था, और वह बालक रूप में पैदा होने से पहले सर्वशक्तिमान पिता परमेश्वर था।(फिलि 2:5, यश 9:6 संदर्भ) लेकिन जब यीशु ने कहा, “मैं और पिता एक हैं।”, यहूदियों ने उस पर पथराव करने के लिए पत्थर उठाए। व्यवस्था के अनुसार परमेश्वर के विरोध में निन्दा की बातें करने पर पथराव करके मार दिया जाता था। उन्होंने यीशु की बात को परमेश्वर की निन्दा समझी।
स्वर्गीय परमेश्वर ने धरती पर आकर अपना परिचय दिया कि मैं परमेश्वर हूं। पर जो लोग परमेश्वर की सेवा करते थे वे उसे मारना चाहते थे। क्योंकि परमेश्वर शरीर पहिनकर आया, उन्होंने परमेश्वर को क्रूस पर लटका कर मारा डाला।
सच में असंगत घटना है कि उन्होंने परमेश्वर को मार डाला जिसकी वे सेवा करते थे। यदि हम इस घटना की पृष्ठभूमि देखते हैं, हम जान सकते हैं कि उस समय के धार्मिक नेता परमेश्वर के बारे में नहीं जानते थे। वे सिर्फ उस परमेश्वर को जानते थे जो उनकी संकल्पना में था। उन्हें कोई आत्मिक अन्तर्दृष्टि और ज्ञान नहीं था कि परमेश्वर किसी भी रूप में, यहां तक कि हमारी भांति मनुष्य के रूप में भी आ सकता है। तब, मसीह क्यों शरीर में आया? एक छोटी कहानी से आइए हम परमेश्वर की इच्छा ढूंढ़ें।
एक दिन जब एक परदेशी सुनसान गांव की गली पर चल रहा था, उसने चिड़ियों को बीज खाते देखा। उसे चिड़ियां बहुत सुन्दर लगीं जिसे परमेश्वर ने सृजा। उसकी इच्छा थी कि निकट जाकर उन्हें सहलाए।
यह विचार दिल में लेकर वह निकट गया, लेकिन उसके निकट जाते ही चिड़ियां उड़ कर थोड़ी दूरी पर बैठीं। परदेशी के सच्चे मन को चिड़ियों ने नहीं जाना बल्कि यह सोचकर डर गए थे कि शायद वह हमें हानि पहुंचाएगा। उसके बाद भी उसने कई बार कोशिश की, फिर भी चिड़ियां वैसे ही उड़ जाती थी। परदेशी को अन्त में अहसास हुआ, यदि मैं चिड़िया को अपना मन दिखाना चाहूं तो मुझे चिड़िया बनना होगा।
यही कारण था जिससे परमेश्वर शरीर पहिन कर मनुष्य बना। लोग हमेशा परमेश्वर के पवित्र एंव ईश्वरीय रूप को देखकर डर के मारे भाग जाते थे। लेकिन परमेश्वर मानव से प्रेम करता था और उन्हें उद्धार देने का विशेष समाचार देना चाहता था, इसलिए वह मनुष्य होकर इस पृथ्वी पर आया।
“और सब लोगों ने बादल गरजते और बिजली चमकते और नरसिंगे का शब्द होते हुए सुना और पर्वत से धुआं उठते हुए देखा, और जब लोगों ने यह देखा तो कांप उठे और दूर खड़े हो गए। तब उन्होंने मूसा से कहा,… परन्तु परमेश्वर हमसे न बोले, अन्यथा हम मर जाएंगे…”निर्ग 20:18–21
पुराने इस्राएली सीनै पर्वत पर परमेश्वर की भयभीत आवाज़ सीधा सुनकर बहुत घबरा गए थे। इसलिए उन्होंने मूसा को बीच में मध्यस्थ करने को कहा। जैसे उस परदेशी को चिड़िया सुन्दर लगी और सहलाने के मन से निकट गया पर चिड़िया उसका मन न जानते हुए मात्र डर के मारे उड़ गई, वैसे ही लोगों को भी परमेश्वर का वचन सीधा सुनकर डर लगा कि शायद हम मर जाएंगे।
परमेश्वर की आवाज को मनुष्य सीधा सुनकर डर जाते हैं। इसलिए परमेश्वर हमारे जैसे मनुष्य रूप में आया। परमेश्वर आत्मा है, परन्तु मनुष्य शरीर और लहू में सहभागी होने के कारण परमेश्वर के वचन से भयभीत होता है। इसलिए परमेश्वर ने हमारे जैसे रूप में इस पृथ्वी पर आने का निर्णय किया।
“आदि में वचन था,… वचन परमेश्वर था… और वचन, जो अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण था, देहधारी हुआ, और हमारे बीच में निवास किया, और हमने उसकी ऐसी महिमा देखी जैसी पिता के एकलौते(यीशु) की महिमा।”यूह 1:1–14
शरीर में आया यीशु मूल रूप से सृष्टिकर्ता परमेश्वर था जिसने संसार में सारी वस्तुओं को बनाया। परमेश्वर मनुष्य होकर आया, जिससे लोग उनके निकट आ सके। परन्तु बात यह है, जब परमेश्वर ने शक्ति और ईश्वरीय गुण दिखाया, लोग परमेश्वर से डर गए, लेकिन जब परमेश्वर वास्तव में मनुष्य के रूप में आया, लोगों ने उसे तुच्छ जाना। इसलिए उस समय धार्मिक अगुवे, महायाजक और शास्त्रियों ने यीशु के ईश्वरीय गुण को नहीं पहचाना और उसे अपने बराबर साधारण मनुष्य ही समझा।
“पांच दिन के पश्चात् महायाजक हनन्याह कुछ प्राचीनों तथा तिरतुल्लुस नामक एक वकील को साथ लेकर आया, और उन्होंने राज्यपाल के सम्मुख पौलुस के विरुद्ध अभियोग लगाए… बात यह है कि यह मनुष्य वास्तव में उपद्रवी है और संसार भर के सारे यहूदियों में फूट डालता है और नासरियों के कुपन्थ का नेता है।” प्रे 24:1–5
ऊपर दृश्य के द्वारा हम जान सकते हैं कि उस समय के धार्मिक नेताओं ने यीशु को ‘नासरियों का कुपन्थ’ कहा। यह दृश्य स्पष्ट रूप से दिखाता है कि परमेश्वर जिसने मानव से प्रीति की और स्वर्ग के सुसमाचार सुनाए उसे लोगों ने गलत दोष लगाते हुए विधर्मी कहा।
“…मैं और पिता एक हैं। यहूदियों ने उसे पथराव करने को फिर पत्थर उठाए। …यहूदियों ने उसे उत्तर दिया, “हम अच्छे कार्य के लिए तुझे पथराव नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के करण, और इसलिए भी कि तू मनुष्य होकर अपने आपको परमेश्वर बताता है।”यूह 10:27–33
परमेश्वर ने स्वयं को परमेश्वर कहा, लेकिन उन्होंने यह पाप ठहरा कर परमेश्वर पर पथराव करने को फिर पत्थर उठाए। इस तरह उन्होंने परमेश्वर का इनकार किया, इसलिए यीशु के बहुमूल्य वचन को स्वीकार न कर सके।
यूहन्ना की आंखों में जिसने सुसमाचार की पुस्तक लिखी, यीशु मसीह के रूप में दिखाई देता था जो शरीर में आया परमेश्वर है। लेकिन उस समय के धार्मिक अगुवों की आंखों में वह ऐसा नहीं दिखाई दिया। उन्हें मसीह डाकु या हत्यारे से भी कहीं दुष्ट पापी के रूप में दिखाई पड़ा। इसलिए क्रूस पर यीशु को लटकाने से पहले वे चिल्लाए कि डाकू बरअब्बा को छोड़ा जाए और यीशु को क्रूस पर लटकाया जाए।
सिर्फ यह मामला नहीं है जिसमें मसीह को न समझ कर अत्याचार किया गया हो। उसका परिवार और उसके रिश्तेदार भी जिन्हें सबसे निकट रहकर यीशु को समझना था, यीशु को पकड़वाने की खोज में रहते थे।
“जब यीशु के कुटुम्बियों ने यह सुना, तो वे उसे पकड़ने के लिए निकले, क्योंकि उनका कहना था, “उसका चित्त ठिकाने नहीं।”मर 3:20–21
इस तरह के दृश्यों को बाइबल क्यों वर्णन कर रही है? हमें सोचना चाहिए। सिर्फ यीशु की ईश्वरीय आकृति नहीं जो आजकल संसार में प्रचलित है, बल्कि हमें उसे समझना और महसूस करना है जो इस धरती पर मनुष्य होकर रहा। तभी हम परमेश्वर को ठीक रूप से समझ सकते हैं।
मानव से प्रेम करने के कारण परमेश्वर शरीर में आया था पर उसके शरीर में आने के कारण लोगों ने मसीह को न तो पहचाना और न ही स्वीकार किया। पढ़े लिखे धार्मिक नेताओं ने भी सुसमाचार को ‘नासरियों के कुपन्थ का मत’ कह कर तुच्छ किया, यहां तक कि अपने हाथों से अपने परमेश्वर को क्रूस पर लटकाया। उन्होंने थप्पड़ मारकर और घूसों से मारकर कहा, “हे मसीह, भविष्यद्वाणी करके हमें बता: किसने तुझे मारा?” (मत 26:67–68)
अन्य धर्म के लोग भी अपने ईश्वर की इतनी निन्दा न करते। परन्तु परमेश्वर के भक्तों ने ही जो अपने को परमेश्वर के विश्वासी मानते थे, ऐसा किया था। इस पृथ्वी पर आए मसीह को पकड़ने के लिए उसके रिश्तेदार यह कह कर निकले थे, कि “वह पागल है।” और ऊंचे पद के महायाजक, शास्त्री और धार्मिक अगुवे यीशु की शिक्षा को अधर्म मान कर अस्वीकार करते थे। परमेश्वर ने धरती पर आकर अपने को परमेश्वर कहा, फिर भी लोगों ने यह कहते हुए अत्याचार किया,
“तू मनुष्य होकर अपने आपको परमेश्वर बताता है।”
उनके पास आत्मिक आंखें नहीं थीं जो सही चीज को सही पहचानती और सत्य को ठीक रूप से देखती हैं। उन्होंने शारीरिक रीति से न्याय करते हुए अनुग्रहमय शिक्षा को सुनने के लिए आत्मिक कान खोलना नहीं चाहा। जब मसीह का पुनरुत्थान हुआ तब सैनिकों को जिन्होंने देखा, घूस देकर पुनरुत्थान की गवाही देने से रोक दिया। उन्होंने विश्वासनीय गवाही देखने पर भी विश्वास नहीं किया। परमेश्वर जिस पर उन्होंने दृढ़ विश्वास किया, स्वयं इस धरती पर आया लेकिन स्वीकार करने वाला कोई नहीं था।
यह सिर्फ यीशु के समय की स्थिति नहीं, बल्कि आज इस युग की स्थिति भी है। प्रथम चर्च के सभी इतिहास दूसरी बार आने वाले यीशु के समय में भी दुहराए जाते हैं। चाहे वह विश्वासनीय सत्य लेकर आया हो, लोग शरीर में उसके आने के कारण स्वीकार नहीं करते हैं।
“…क्योंकि परमेश्वर एक ही है और परमेश्वर तथा मनुष्यों के बीच एक ही मध्यस्थ भी है, अर्थात् मसीह यीशु, जो मनुष्य है।” 1 तीम 2:4–5
लोगों का पूछना है कि क्यों परमेश्वर मनुष्य के रूप में आता है। इसका जवाब यह है: “यीशु जो मनुष्य है”। बाइबल में कहा गया है कि प्रत्येक आत्मा जो नहीं मानती कि मसीह देह धारण कर के आया है वह मसीह विरोधी की आत्मा है।(1 यूह 4:1–3) दूसरे शब्द में बाइबल सिखाती है कि जो मसीह विरोधी की आत्मा से शिक्षा पाए वे नहीं मानते कि मसीह देह धारण कर के आया है।
फिलहाल ईसाई धर्म के धार्मिक मत इस बाइबल की शिक्षा से बिल्कुल अलग हैं। जैसे जब यीशु पहली बार आया, उस समय के धार्मिक नेताओं ने, जिन्हें परमेश्वर के विश्वासी होने में गर्व था, अपने धार्मिक मत और विचारधारा से ही परमेश्वर को क्रूस पर लटकाया था, वैसा आज भी है।
संसार के लोग मसीह के मनुष्य के रूप में आने को न समझते थे। इसलिए चिंचित और हताश प्रेरितों ने जोर दिया कि मसीह यीशु मनुष्य है और प्रत्येक आत्मा जो नहीं मानती कि मसीह देह धारण कर के आया है वह मसीह विरोधी की आत्मा है।
जब परमेश्वर ने ईश्वरीय रूप में सीनै पर्वत पर शिक्षा दी तब सभी लोग डर के मारे भाग गए थे। और जब परमेश्वर मनुष्य रूप में आकर लोगों के पास गया तब लोगों ने सुसमाचार पर ‘नासरियों के कुपन्थ की शिक्षा’ कहते हुए दोष लगाया, यहां तक कि उन्होंने राज्यपाल के सामने सुसमाचारक प्रेरितों पर अभियोग लगाया। इस तरह से उन्होंने सत्य पर अभियोग लगाया।
यदि हम सत्य का अस्वीकार करते हुए देखते हैं तो मालूम होता है कि साधारण लोगों के लिए सत्य समझना मुश्किल है। तब आइए हम जानें कि मसीह को, जो मनुष्य रूप में आया, कौन स्वीकार कर सकता है? मसीह को स्वीकार करने वाले और अस्वीकार करने वाले के बीच, और मसीह की शिक्षा को अनुग्रह के साथ ग्रहण करने वाले और अधर्म कहने वाले के बीच में क्या बड़ा अन्तर है? जो उसे ग्रहण करता है वह स्वर्गीय आशीष से जन्मा है।
“…अत: जिस प्रकार बच्चे मांस और लहू में सहभागी हैं, तो वह आप भी उसी प्रकार उनमें सहभागी हो गया, कि मृत्यु के द्वारा उसको जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली है, अर्थात् शैतान को, शक्तिहीन कर दे, और उन्हें छुड़ा ले जो मृत्यु के भय से जीवन भर दासत्व में पड़े थे।” इब्र 2:13–15
जब परदेशी चिड़ियों के निकट गया तब चिड़ियां उड़ कर चली गई थी। इसलिए परदेशी ने चिड़िया बनकर निकट जाना चाहा। उसी तरह से जब कभी परमेश्वर लोगों के पास जाता था तब हमेशा लोग डर के मारे भाग जाते थे। इसी कारण परमेश्वर स्वयं अपने बच्चों के समान जो मांस और लहू में सहभागी हैं, शरीर पहिन कर धरती पर आया। उसने इस पर ध्यान नहीं दिया कि लोग उसकी शिक्षा को अधर्म कहते हैं कि नहीं, चाहे एक आत्मा हो, सिर्फ जिसने सच्चा विश्वास किया है उसे जीवन देने की इच्छा से आया था।
मसीह उद्धार के लिए इस धरती पर आया था। जहां वह पहले गया वहां शानदार मन्दिर नहीं था जो 46 वर्षों से बनाया गया था। यीशु पतरस के पास गया जो गलील की झील के किनारे मछुए का काम करके जीविका चलाता था, और कहा, “मेरे पीछे चलो, मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊंगा।” यह बात सुन कर पतरस ने जाल और नाव को छोड़ कर यीशु के पीछे चला।
“गलील की झील के किनारे चलते हुए उसने दो भाइयों को अर्थात् शमौन जो पतरस कहलाता था तथा उसके भाई अन्द्रियास को झील में जाल डालते देखा, वे तो मछुए थे। उसने उनसे कहा, “मेरे पीछे चलो। मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊंगा।” वे तुरन्त जालों को छोड़कर उसके पीछे चल पड़े।”मत 4:18–20
क्यों यीशु मसीह मन्दिर में नहीं गया जहां बहुत से लोग मसीह के आने का इन्तजार कर रहे थे, लेकिन छोटे से मछुआ गांव जाकर पतरस और अन्द्रियास को अपने पीछे चलने की आज्ञा दी? और वे तुरन्त जाल और नाव छोड़ कर यीशु के पीछे चल पड़े। और वहां से आगे बढ़ कर उसने याकूब और यूहन्ना को भी यही आज्ञा दी, तब वे भी तुरन्त यीशु के पीछे चल पड़े।
उनका हृदय महायाजकों के हृदय से बहुत अलग था। परमेश्वर की आत्मिक आखों से महायाजक जो 46 वर्ष तक बनाए गए शानदार मन्दिर में इस्राएलियों के साथ आराधना करते थे, परमेश्वर के वचन को स्वीकार करने वाले नहीं थे। इसलिए जब यीशु ने महायाजकों को सुसमाचार सुनाया तब उन्होंने उसे अधर्मी सोच कर उस पर अत्याचार किया था। लेकिन जब यीशु ने पतरस को सुसमाचार सुनाया तब उसने खुशी से ग्रहण किया और जहां कहीं भी यीशु जाता था वह उसके पीछे चलता था।
यीशु पहले से उनके आत्मिक अवस्था को जानता था। यीशु ने पतरस के जैसे चेलों के पास जाकर एक बार भी नहीं कहा, “मन फिराओ”, लेकिन यीशु महायाजकों के जैसे लोगों के पास जाकर बार बार कहता था, “मन फिराओ”, क्योंकि वे जो सिर्फ होंठों से परमेश्वर की खोज में थे, पश्चात्ताप किए बिना स्वर्ग नहीं जा सकते थे।
परमेश्वर मांस और लहू में सहभागी हुआ और धरती पर आकर फसह, नई वाचा, स्थापित की जिससे वह बच्चों को, जो शैतान की जंजीर में बंधे हैं, छुड़ा ले सके। इसके बावजूद आजकल चर्च अंधाधुंध तरीके से कहता है, “फसह मनाना तो अधर्म है”। वास्तव में, यह बात वे यीशु को कह रहे हैं जिसने फसह के सत्य के द्वारा मृत्यु को मिटाया। प्रथम चर्च के समय धार्मिक लोगों ने भी एक जैसी बात कही थी। उसी तरह आजकल भी लोग यीशु की शिक्षा को अधर्म कह रहे हैं।
नई वाचा, फसह, सुसमाचार है जिसे प्रेरित पौलुस और पतरस ने सुनाया था, तथा यीशु ने भी स्वयं सुनाया था। ऐसा होने पर भी यदि वे इसे अधर्म कहते हैं तो वे उन महायाजक हनन्याह व वकील तिरतुल्लुस के समान बन जाते हैं जिन्होंने यीशु पर अधर्म का दोष लगाया था।
कल्पना कीजिए, यदि मसीह इस धरती पर फिर से शरीर में आए तब संसार के लोग उसे क्या कहेंगे? अवश्य ही यीशु को ‘अधर्मी’ कहा जाएगा। क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते। परमेश्वर को न जानने के कारण वे यह मानते हुए भी कि पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा एक हैं, उनका नाम नहीं जानते। वे बिना जाने रुकावट डालते हैं। इसलिए यीशु ने कहा, “उन्होंने बिना कारण मुझ से घृणा की।” (यूह 15:25) बाइबल स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी करती है कि मसीह दूसरी बार इस धरती पर प्रकट होगा।
“… वैसे ही मसीह भी, बहुतों के पापों को उठाने के लिए एक बार बलिदान होकर, दूसरी बार प्रकट होगा। पाप उठाने के लिए नहीं, परन्तु उनके उद्धार के लिए जो उत्सुकता से उसके आने की प्रतीक्षा करते हैं।”इब 9:27–28
यदि दूसरी बार प्रकट होगा तब हमें उसका स्वागत करने की तैयारी करनी चाहिए। हमें उस गलती को, जो यीशु के पहली बार आते समय की, दुबारा न करनी चाहिए। उस समय के लोगों ने यह कहते हुए मसीह की महिमा के विरुद्ध निन्दा की, “भला नासरत से भी कोई उत्तम वस्तु निकल सकती है?”, “यह मनुष्य बिना शिक्षा पाए कैसे ज्ञानी बन गया?”, शायद उन्होंने ऐसा माना होगा कि यदि पढ़ा लिखा न हो या प्रसिद्ध व सम्मानित परिवार से न जन्मा हो, तो परमेश्वर नहीं हो सकता। यद्यपि यीशु बहुत सारी शिक्षा देता था फिर भी वे नहीं सुनते थे। इसके विपरित, यीशु ने मात्र एक बात कही, “मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊंगा।”, तब चेले तुरन्त यीशु के पीछे चल दिए। तब हमें किस तरह के लोग होना चाहिए?
यीशु ने वादा किया कि वह दूसरी बार प्रकट होगा। फिलहाल हमें मसीह को पूरी रीति से ग्रहण करने के लिए तेल और दीपक को तैयार करना है। हम संसार में ईसाई, मसीह की शिक्षा को अधर्म कहते हैं, लेकिन यीशु, पौलुस और पतरस का नाम बहुत अच्छी तरह से लेते हैं। वे होंठों से तो कहते कि हम यीशु पर विश्वास करते हैं, पर यदि यीशु की शिक्षा को अधर्म कहते हैं तो वे यीशु से जिसने उसे पहली बार सिखाया, क्या कहेंगे? क्या उसे अधर्मी कहेंगे?
अब हमें इस पर ध्यान धरना चाहिए कि यीशु के पहली बार आते समय स्थिति कैसी थी, और क्यों उसे अस्वीकार किया गया। यदि उस समय की स्थिति को नहीं जानेंगे तब हम इस युग के बारे में भी नहीं जान सकते, यहां तक कि हम शायद उसे अस्वीकार कर सकते हैं।
“अब से हम किसी मनुष्य को शरीर के अनुसार न समझेंगे। यद्यपि हमने मसीह को भी शरीर के अनुसार जाना है, तथापि अब से हम उसे ऐसा नहीं जानते।”2कुर 5:16
प्रेरितों ने मसीह के ईश्वरीय गुण को समझा, इसलिए यीशु की आकृति या रूप पर ध्यान न देते हुए केवल मसीह के सच्चे स्वभाव को देखा। लेकिन उस समय के लोगों को यीशु सिर्फ साधारण मनुष्य के रूप में दिखाई पड़ा। तब प्रेरितों के जैसे हम कैसे मसीह के ईश्वरीय गुण को ठीक ठीक समझ सकेंगे?
कई चीजें बहुट छोटी होने से अथवा बहुत बड़ी होने से हमारी आंखों से दिखाई नहीं देती हैं। वे सिर्फ सूक्ष्मदर्शी या दूरबीन से ही दिखाई देती हैं। इस तरह से यदि हम मसीह के ईश्वरीय गुण को देखना चाहें तो ‘भविष्यवाणी की दृष्टि’ से ही देखना चाहिए और यह भविष्यवाणी की दृष्टि बाइबल है। केवल बाइबल के वचन से जो पवित्र आत्मा की प्रेरणा द्वारा परमेश्वर से पाकर लिखी गई, हम शरीर में आए परमेश्वर, यानी मसीह के ईश्वरीय गुण को देख सकते हैं।
बाइबल में मसीह के बारे में साक्षियां लिखी हुई थीं। लेकिन महायाजक, फरीसी और शास्त्री नहीं समझते थे, परन्तु जिनके पास कोई ज्ञान नहीं था उन चेलों ने मसीह को पहचाना था। जैसा कि लिखा है कि जिनके मन शुद्ध हैं वे परमेश्वर को देखेंगे, शुद्ध मन के लोगों को मसीह का सुसमाचार पहुंचाया गया था और केवल वे ही मसीह की शिक्षा को सच्चे परमेश्वर का वचन मानते थे।
“…अपने प्रिय पुत्र के राज्य में प्रवेश कराया है, जिसमें हमें छुटकारा अर्थात् पापों की क्षमा प्राप्त होती है। वह तो अदृश्य परमेश्वर का प्रतिरूप…क्योंकि उसी में सब वस्तुओं की सृष्टि हुई,…समस्त वस्तुएं उसी के द्वारा और उसी के लिए सृजी गई हैं।” कुल 1:13–18
प्रेरित पौलुस ने साहसपूर्वक साक्षी दी कि यीशु जिसे संसार में अधर्मी कहा जाता है, सृष्टिकर्ता परमेश्वर है। परमेश्वर ने इस कारण से अपने ईश्वरीय गुण को छिपाया था कि मानव परमेश्वर से हमेशा भयभीत होता और डर के मारे दूर रहता था। वह मानव को उद्धार देने के लिए मनुष्य बन कर आया। लेकिन लोगों ने परमेश्वर को, जो शरीर में आए, अधर्मी कहते हुए ठट्ठों में उड़ाया और तिरस्कार किया।
आज भी यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि नई वाचा, फसह, संसार में चर्चों के द्वारा अधर्मी शिक्षा मानी जाती है। प्रथम चर्च के समय भी प्रेरित पौलुस पर नई वाचा सुनाने के कारण अभियोग लगाया गया था। आजकल पौलुस तो पवित्र भक्त के रूप में माना जाता है, परन्तु उस समय में उसे सिर्फ ‘नासरियों के कुपन्थ का नेता’ कहा गया।
इस युग में मसीह के इस धरती पर फिर से आने का कारण भी वैसा ही है। उसने मानव से बहुत प्रेम किया और उद्धार का समाचार सुनाना चाहा। जो इसे स्वीकार नहीं करते हैं उनकी संख्या बहुत बड़ी है। यह इसलिए है कि आज की स्थिति पुरानी स्थिति जैसी है। लेकिन विश्वास के पूर्वजों या शहीद के समान, चाहे मसीह की शिक्षा के कारण हमारा अन्याय किया जाता हो, हमें सच्चे मार्ग पर यत्नपूर्वक चलना चाहिए। परमेश्वर की शिक्षा के अनुसार, बाइबल के वचन के अनुसार पालन करके हम जीवन में परमेश्वर के महान प्रेम व आशीष पा सकते हैं।
जैसा कि लिखा है, “यदि संसार तुमसे घृणा करता है तो तुम जानते हो कि उसने तुमसे पहिले मुझ से घृणा की है।” (यूह 15:18) यदि हम मसीह का प्रेम पाते हैं तब संसार से घृणा पाते हैं। परन्तु हम यह न भूल जाएं कि परमेश्वर ने वादा किया है कि यदि मसीह के मार्ग पर चलते हुए दुख पाते हैं तब परमेश्वर हमें बड़ी आशीष हमें देगा। आइए हम अन्तिम युग में आए मसीह को सही तरह से समझ कर विश्वास करें और मसीह के साक्षी बनकर हमारे विश्वास के घर दृढ़ चट्टान पर बनाएं। जिस मार्ग पर मसीह चला उसी मार्ग पर चलते हुए अनन्त स्वर्ग में हम सब प्रवेश करें।