
मूर्ति एक दृश्य या अदृश्य प्रतिमा है, जिसे शैतान ने इसलिए बनाया है कि हम परमेश्वर से दूर होकर उसकी उपासना करें। एक झूठा सिद्धांत जो हमें सत्य का पालन करने से रोकता है, वह भी एक प्रकार की मूर्ति है। व्यापक अर्थ में हर चीज जिसे हम परमेश्वर से अधिक प्रिय मानते हैं, एक मूर्ति है। इस समय, आइए हम विस्तार से देखें कि मूर्ति क्या है।
1.दृश्य मूर्तियां
“तू अपने लिए कोई मूर्ति खोदकर न बनाना, न किसी की प्रतिमा बनाना, जो आकाश में, या पृथ्वी पर, या पृथ्वी के जल में है। तू उनको दण्डवत् न करना, और न उनकी उपासना करना…” निर्ग 20:4–5
परमेश्वर के द्वारा सृजा गया अंतरिक्ष असीम है; वह मानव ज्ञान से भी नापा नहीं जा सकता। विज्ञान के विकसित होने के कारण आज हम अंतरिक्ष को अधिक दूर तक देख सकते हैं, लेकिन हम सिर्फ एक ही चीज को जान सके हैं कि वह बहुत ही विशाल है।
परमेश्वर के द्वारा सृजे गए अंतरिक्ष के आकार को नापना मनुष्यों के लिए असंभव है। यहां, आज तक मनुष्यों को प्राप्त हुए वैज्ञानिक ज्ञान के अंतर्गत आइए हम सिर्फ उसका अंदाजा लगाएं।
हम अंतरिक्ष की दूरी को नापने के लिए “प्रकाश वर्ष” नामक इकाई का उपयोग करते हैं। प्रकाश एक सेकंड में करीब 3,00,000 किमी दूरी तय कर लेता है। वह एक सेकंड में साढ़े सात बार पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। और प्रकाश एक वर्ष में जो दूरी तय करता है, उसे हम एक प्रकाश–वर्ष कहते हैं।
अंतरिक्ष में अरबों आकाशगंगाएं हैं। आकाशगंगा जिसमें हम रहते हैं उसे हम “मिल्की–वे” कहते हैं, और सौरमंडल सूर्य और उसकी परिक्रमा करते ग्रह, क्षुद्रग्रह और धूमकेतुओं से बना है।
हमारा सौरमंडल मिल्की–वे के केंद्र से करीब 28,000 प्रकाश वर्ष दूर स्थित है, और हमारे सौरमंडल के ग्रहों को करीब 200 किमी प्रति सेकंड की गति से हमारी आकाशगंगा मिल्की–वे की परिक्रमा करने में लगभग 20 करोड़ वर्ष लगते हैं। हमारी आकाशगंगा में करीब 200 अरब तारे हैं, लेकिन चूंकि वे हमसे बहुत ही दूर हैं, इसलिए वे बस एक बिन्दु जैसे दिखते हैं और हमारी आंखों में चमकते हैं। यदि सूर्य पृथ्वी से 10,000 प्रकाश वर्ष दूर होता, तो वह रात के आकाश में अनेक तारों में से एक होता और धुंधला दिखाई पड़ता।
हमारी आकाशगंगा का केंद्र सूर्य की तुलना में 1,000 खरब गुना ज्यादा ऊर्जा उत्सर्जित करता है। चूंकि वह हमसे बहुत दूर है, इसलिए वह बस हमें तारों के एक धुंधले गुच्छ के जैसा दिखता है। प्रकाश–किरणों को हमारी आकाशगंगा के एक सिरे से दूसरे सिरे तक यात्रा करने में लगभग 1,00,000 वर्ष लगते हैं। अंतरिक्ष में ऐसी अरबों आकाशगंगाएं हैं।
परमेश्वर ने इस विशाल अंतरिक्ष को बनाया है, और हम वो लोग हैं जो सृष्टिकर्ता परमेश्वर की उपासना करते हैं। हम कैसे किसी चीज से परमेश्वर की तुलना कर सकते हैं और उनके लिए एक प्रतिमा बना सकते हैं? परमेश्वर के द्वारा सृजा गया सूर्य क्या परमेश्वर का प्रतीक हो सकता है? या क्या परमेश्वर को उनके सृष्ट किए हुए चांद के बराबर समझा जा सकता है? परमेश्वर के लिए सूर्य या चांद कुछ नहीं है। यहां तक कि विशाल आकाशगंगा भी कुछ और नहीं बस परमेश्वर की एक कृति है। सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता परमेश्वर का प्रतीक कुछ भी नहीं हो सकता, और परमेश्वर के लोगों का कर्तव्य सिर्फ उनकी आज्ञाओं का पालन करना है।
किसने यहोवा की आत्मा को मार्ग बताया या उसका मन्त्री होकर उसको ज्ञान सिखाया है?… देखो, जातियां तो डोल में की एक बून्द या पलड़ों पर की धूलि के तुल्य ठहरीं… सारी जातियां उसके सामने कुछ नहीं हैं, वे उसकी दृष्टि में लेश और शून्य से भी घट ठहरी हैं। तुम परमेश्वर को किसके समान बताओगे और उसकी उपमा किस से दोगे? मूरत! कारीगर ढालता है, सोनार उसको सोने से मढ़ता और उसके लिये चांदी की सांकलें ढालकर बनाता है… यश 40:13–20
अन्यजातियों की मूरतें सोना–चांदी ही हैं, वे मनुष्यों की बनाई हुई हैं। उनके मुंह तो रहता है, परन्तु वे बोल नहीं सकतीं, उनके आंखें तो रहती हैं, परन्तु वे देख नहीं सकतीं, उनके कान तो रहते हैं, परन्तु वे सुन नहीं सकतीं, न उनके कुछ भी सांस चलती है। जैसी वे हैं वैसे ही उनके बनानेवाले भी हैं; और उन पर सब भरोसा रखनेवाले भी वैसे ही हो जाएंगे! भज 135:15–18
2.अदृश्य मूर्तियां
1) सिद्धांतों के कारण मूर्तिपूजा
अदृश्य मूर्तियों में सिद्धांत हैं जो परमेश्वर की आज्ञाओं से अलग हैं। परमेश्वर ने हमें अपनी आज्ञाएं दी हैं। यदि लोग परमेश्वर की आज्ञाओं का नहीं, बल्कि दूसरे सिद्धांतों का पालन करें, तो यह मूर्तिपूजा होगी। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने सब्त का दिन स्थापित किया, लेकिन यदि लोग रविवार को सब्त का दिन कहकर उस दिन आराधना करें, तो यह सब्त के दिन को अपवित्र करके मूर्तिपूजा करना है। परमेश्वर ने फसह का पर्व स्थापित किया, लेकिन यदि लोग फसह का पर्व न मनाएं और 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाएं जो सूर्य–देवता का जन्मदिन है, तो यह फसह के पर्व को अपवित्र करके मूर्तिपूजा करना है। परमेश्वर ने झोपड़ियों का पर्व स्थापित किया, लेकिन यदि लोग झोपड़ियों के पर्व का इनकार करें और मनुष्य का बनाया हुआ धन्यवाद का दिन मनाएं, तो यह झोपड़ियों के पर्व को अपवित्र करके मूर्तिपूजा करना है। परमेश्वर की आज्ञाओं को तोड़कर मनुष्यों के नियमों को मानना परमेश्वर की आज्ञाओं के विरुद्ध एक मूर्तिपूजा है।
2) शौक के कारण मूर्तिपूजा
संसार में लोगों को कुछ स्वस्थ शौक रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। शौक रखना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन यदि वे हमारे स्वर्ग जाने के मार्ग में बाधा डालें और हमें कैद करके रखें, तो वे मूर्तियां होंगे जो हमें परमेश्वर से अधिक आकर्षक लगती हैं।
मान लीजिए कि एक व्यक्ति को पर्वत की सैर करना पसंद है। यदि वह परमेश्वर की आराधना करने के दिन, यानी सब्त के दिन पर्वत की सैर करने जाए, तो उसके लिए पर्वत की सैर करना एक मूर्ति होगी। यदि एक सदस्य जिसके पास कमजोर विश्वास है, फूटबॉल मैच देखने के कारण सब्त के दिन आराधना न मनाए, तो उसके लिए फूटबॉल एक मूर्ति है। हर चीज जिसे एक व्यक्ति परमेश्वर से ज्यादा प्रिय मानता है, और जो परमेश्वर की तुलना में उसका ध्यान बहुत ज्यादा आकर्षित करती है, वह निश्चय ही एक मूर्ति है।
लेकिन यदि वह अपने अवकाश के समय में उचित तरीके से अपने मनपसंद शौक को पूरा करे और आराधना के दिन परमेश्वर की आराधना करे और सुसमाचार का कार्य करे, तो उसका शौक उसके लिए मूर्ति नहीं है।
3) भौतिक चीजों के कारण मूर्तिपूजा
क्योंकि रुपये का लोभ सब प्रकार की बुराइयों की जड़ है, जिसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हुए बहुतों ने विश्वास से भटककर अपने आप को नाना प्रकार के दुखों से छलनी बना लिया है। 1तीम 6:10
यदि कोई परमेश्वर की आज्ञाओं को मानने से अधिक पैसा कमाना पसंद करे, तो उसके लिए पैसा एक मूर्ति होगी, जिसके कारण वह परमेश्वर से अलग होगा। अवश्य ही, हमें पृथ्वी पर जीने के लिए पैसे की जरूरत है, लेकिन यदि एक व्यक्ति पैसे को हद से ज्यादा पसंद करता है और परमेश्वर से अधिक पैसे से प्रेम करता है, तो निश्चय ही उसके लिए पैसा एक मूर्ति है।
पैसे से प्रेम करने के परिणामस्वरूप हत्या, डकैती, चोरी और हर प्रकार का घृणित अपराध होता है। जब लोग पैसे से अत्यधिक या हद से ज्यादा प्रेम करते हैं, तब वे पैसे को इंसान से ऊंचा समझते हैं। उन्हें यह गलत विश्वास हो जाता है कि इंसान के लिए पैसा नहीं है, बल्कि पैसे के लिए इंसान होता है, और यह मूर्तिपूजा का एक रूप है।
4) लालच के कारण मूर्तिपूजा
इसलिये अपने उन अंगों को मार डालो, जो पृथ्वी पर हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्कामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्तिपूजा के बराबर है। इन ही के कारण परमेश्वर का प्रकोप आज्ञा न माननेवालों पर पड़ता है। कुल 3:5–6
विभिन्न प्रकार की मूर्तियां हमें अपने मन को परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य होने से रोकने के लिए बहकाती हैं। उनमें से एक लालच है। बेहतर चीजों को अपने पास रखने की इच्छा रखना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। लेकिन यदि आप अपनी इस सहज प्रवृत्ति का जरूरत से ज्यादा पालन करें, तो आपको इससे सावधान रहना चाहिए। यदि आप परमेश्वर से प्रेम करने के बजाय अपनी मनपसंद चीज रखना पसंद करें, तो यह एक मूर्तिपूजा है। दूसरों की चीजें चुराना, यह लालच का पीछा करने का परिणाम है, और उच्च सामाजिक स्थिति और सम्मान की लालच करना मूर्तिपूजा का एक रूप है। क्या उनका उद्धार से कुछ लेना देना है? क्या वे स्वर्ग के राज्य में हमारी अगुवाई कर सकते हैं? चाहे वह कुछ भी हो, यदि हम किसी चीज से परमेश्वर से ज्यादा प्रेम करें, तो यह एक मूर्तिपूजा है।
क्योंकि शारीरिक व्यक्ति शरीर की बातों पर मन लगाते हैं; परन्तु आध्यात्मिक आत्मा की बातों पर मन लगाते हैं। शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है; क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन है और न हो सकता है। रोम 8:5–7
5) व्यक्ति के कारण मूर्तिपूजा
यदि कोई परमेश्वर से अधिक किसी व्यक्ति से प्रेम करता है, तो उसके लिए वह व्यक्ति एक मूर्ति है। यदि कोई परमेश्वर से ज्यादा मशहूर हस्तियों का दीवाना है और परमेश्वर की आराधना के समय को भी भूलकर उनको पास जाकर देखना पसंद करता है, या आराधना के दौरान उनके विचारों से ग्रस्त रहता है, तो निश्चय ही उसके लिए वे एक मूर्ति हैं। सन्तान, माता–पिता या फिर पति या पत्नी मूर्ति हो सकते हैं यदि वह उनसे परमेश्वर से अधिक प्रेम करे।
जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं; और जो बेटा या बेटी को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं; और जो अपना क्रूस लेकर मेरे पीछे न चले वह मेरे योग्य नहीं। जो अपने प्राण बचाता है, वह उसे खोएगा; और जो मेरे कारण अपना प्राण खोता है, वह उसे पाएगा। मत 10:37–39
इसका यह मतलब नहीं कि हमें अपने माता–पिता या सन्तानों से प्रेम नहीं करना चाहिए; इसका मतलब है कि हमें अपने माता–पिता और सन्तानों को परमेश्वर से अधिक प्रेम नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसी के परिणामस्वरूप हम परमेश्वर से दूर होकर उद्धार पाने में नाकाम होते हैं।
चूंकि यीशु सिर्फ स्वर्ग में ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर और मृत्यु के बाद भी हमारे जीवन के बारे में सब कुछ जानते हैं, इसलिए उन्होंने हमें सिखाया है कि हमें आशीषें पाने के लिए सबसे अधिक परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए।
यदि आप किसी से प्रेम करें, तो आप उसे प्रसन्न करना चाहेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि उसे किसमें दिलचस्पी है। यदि उसे कविता पसंद है, तो आप किताबों की दुकान पर जाकर कविता पढ़ने के लिए कविता की पुस्तक खरीदेंगे, क्योंकि आप उसके मन को जीतने के लिए उसके साथ कविताओं के बारे में बात करना चाहते हैं।
इसी तरह, यदि हम परमेश्वर से प्रेम करें, तो हम वह करने की कोशिश करेंगे जिससे परमेश्वर प्रसन्न होते हैं और वह पूरा करने की कोशिश करेंगे जिसे परमेश्वर पसंद करते हैं।
6) अपने विचारों के कारण मूर्तिपूजा
भले ही हम परमेश्वर की सेवा करने का दावा करते हैं, लेकिन हम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय अपने खुद के विचारों के अनुसार चीजों को करते हैं। जब हम ऐसे विचार पर डटे रहें, “परमेश्वर को इस तरह काम करना चाहिए,” तो यदि परमेश्वर हमारे तरीके से अलग तरीके से कार्य करें और हमारे विचारों से अलग तरीके से मनुष्यों से प्रेम करें, तो हम नाखुश होकर परमेश्वर का इनकार करने लगेंगे। हम इस कारण से अपने विचारों पर हठी रहते हैं क्योंकि हम खुद को परमेश्वर से अधिक धर्मी मानते हैं। यह मूर्तिपूजा है जो हमें परमेश्वर से दूर करती है।
इस्राएल के पहले राजा शाऊल को परमेश्वर से यह आज्ञा मिली थी कि वह अपनी सेना को अमालेकियों को और जो कुछ उनके पास है सब को नष्ट करने के लिए भेजे। मगर शाऊल ने सोचा कि लोगों का कहना परमेश्वर के वचन से ज्यादा सही है। इसलिए उसने उन सभी पशुओं को मार डाला जो कमजोर और बीमार थे, लेकिन अच्छी से अच्छी भेड़–बकरियों, गाय–बैलों, मोटे पशुओं और मेम्नों को छोड़ दिया और उन्हें जीवित वापस ले आया।
जब शमूएल ने शाऊल को उसकी गलती बताई, तब उसने यह कहते हुए बहाना बनाया, “प्रजा के लोग सर्वोत्तम भेड़ें और पशु गिलगाल में तुम्हारे परमेश्वर यहोवा के लिए बलि चढ़ाने को ले आए हैं।” इस पर नबी शमूएल ने कहा, “क्या यहोवा होमबलियों, और मेलबलियों से उतना प्रसन्न होता है, जितना कि अपनी बात के माने जाने से प्रसन्न होता है? परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना तो बलि चढ़ाने और कान लगाना मेढ़ों की चर्बी से उत्तम है। आज्ञा के पालन से इनकार करना जादूगरी करने के पाप जैसा है। हठी होना और मनमानी करना मूर्तियों की पूजा करने जैसा पाप है।”(1शम 15:21–23)
परमेश्वर ने हमें सिखाया कि परमेश्वर के वचनों का पालन न करना जादूगरी करने के पाप जैसा है, और परमेश्वर के वचनों का पालन करने के बजाय अपने ही विचारों पर हठी होना मूर्तियों की पूजा करने जैसा पाप है। हमें जानना चाहिए कि परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करना और हठ करना मूर्तिपूजा करना है।
जब हमारे पास परमेश्वर के वचनों को मानने के लिए पर्याप्त विश्वास हो, सिर्फ तब ही हम जहां कहीं मेमना जाता है, उसका पालन कर सकते हैं। जहां कहीं मेमना जाता है, उसका पालन करने में विफल होने का मतलब है कि हम खुद को परमेश्वर से अधिक धर्मी सोचते हैं। जब हम सोचें, ‘मुझे लगता है कि परमेश्वर को इस तरह करना चाहिए। उन्हें उस तरह से नहीं करना चाहिए, है न?’ तो हम परमेश्वर का पालन नहीं कर सकते।
… उनको परमेश्वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं। क्योंकि वे परमेश्वर की धार्मिकता से अनजान होकर, और अपनी धार्मिकता स्थापित करने का यत्न करके, परमेश्वर की धार्मिकता के आधीन न हुए। रो 10:2–3
मनुष्य अज्ञान हैं। हम यह पहले से ही नहीं देख सकते कि अगले ही क्षण में क्या होगा। हम यह नहीं जान सकते कि दुष्ट दुश्मन शैतान ने हमें फंसाने के लिए उस मार्ग पर जाल और फंदा बिछाया है जिस पर हम चल रहे हैं, क्योंकि वह मार्ग हमें अपने विचार से अच्छा लगता है। मान लीजिए कि परमेश्वर जो सब कुछ जानते हैं, हमें उस फंदे से बचाने के लिए दूसरे मार्ग से घूमकर जाने की आज्ञा देते हैं। यदि हम अपने विचार को सही सोचकर अपने मार्ग पर जाने का फैसला करें, तो हमें कभी परमेश्वर का वचन कान में सुनाई नहीं देगा, और यह सोचते हुए कि हमारे विचार परमेश्वर के विचारों से अधिक धर्मी हैं, हम अपने खुद के तरीकों पर जोर देकर शैतान के फंदे में फंस जाएंगे।
परमेश्वर की धार्मिकता को जाने बिना अपनी खुद की धार्मिकता पर जोर देना एक गंभीर मूर्तिपूजा है। मूर्ति जिससे हम जो परमेश्वर के सत्य में हैं, सबसे ज्यादा सावधान रहना चाहिए, वह अपने खुद के विचारों और फैसलों को सबसे धर्मी सोचना और मानना है। यह लिखा है, “यदि कोई समझे कि मैं कुछ जानता हूं, तो जैसा जानना चाहिए वैसा अब तक नहीं जानता”(1कुर 8:2)। दरअसल, जो हम समझते हैं वह बहुत ही थोड़ा है। इसलिए, हमें हमेशा नम्र रहना चाहिए। नम्र होने का ढोंग करके हम नम्र नहीं बन सकते; हम तब ही नम्रता से सोच सकते हैं और नम्रता से व्यवहार कर सकते हैं जब हम महसूस करते हैं कि हम में कितनी ज्यादा कमियां हैं और हम कितने अधिक अज्ञान हैं। दूसरे शब्दों में, हमें खुद को जानने की जरूरत है। हम परमेश्वर को सही तरह से तब देख सकेंगे जब हम अपने पद, स्थिति और अवस्था को जानेंगे। साथ ही, हमें परमेश्वर का भय मानना चाहिए। परमेश्वर का भय मानने का मतलब है, परमेश्वर का आदर करना और उनसे डरना। यदि हम परमेश्वर का भय न मानें, तो हम मर्यादाहीन और अभिमानी बनेंगे। तब हमारे मन मूर्तियों से भर जाएंगे, परमेश्वर से दूर हो जाएंगे और शैतान के नजदीक जाएंगे। यदि मैं बड़ा बनूं, तो परमेश्वर जो मुझ में कार्य करते हैं, छोटे बनेंगे, और यदि मैं छोटा बनूं, तो परमेश्वर जो मुझ में कार्य करते हैं, बड़े बनेंगे। इसे मन में रखकर, हमें “मेमने से भी छोटा मेमना” बनना चाहिए ताकि हम जहां कहीं परमेश्वर जाएं, उनके पीछे हो सकें।
3. मूर्तियों के विषय में विचार
चीजें जिनसे हम परमेश्वर से ज्यादा प्रेम करते हैं, और विचार या चिंतन जो हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने से रोकते हैं, ये सभी चीजें मूर्तियां हैं।
हमें चौकस रहना चाहिए कि हमारे आसपास ऐसी चीजें न हों जो हमारे लिए मूर्तियां बनकर हमें परमेश्वर से दूर रखती हैं। विभिन्न प्रकार की दृश्य और अदृश्य मूर्तियां हैं। वे कभी हमारी आंखों में दिखाई दे सकती हैं, कभी सिद्धांत हो सकती हैं, और कभी वे हमारे विचारों में कुछ हो सकती हैं। आइए हम उन सभी मूर्तियों को निकालें और परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहें। पुराने नियम के समय से लेकर नए नियम के समय तक मूर्तिपूजा परमेश्वर की दृष्टि में बुरी है।
… हत्यारों और व्यभिचारियों, और टोन्हों, और मूर्तिपूजकों, और सब झूठों का भाग उस झील में मिलेगा जो आग और गन्धक से जलती रहती है: यह दूसरी मृत्यु है। प्रक 21:8
सिय्योन के लोगों को, जो नई वाचा के द्वारा परमेश्वर की सन्तान बने हैं, सदा सचेत रहना चाहिए कि उनके आसपास या उनके मन के भीतर मूर्तियां न हों, और अपने पर नियंत्रण रखना चाहिए और सिर्फ परमेश्वर की सेवा करनी चाहिए।
इस कारण, हे मेरे प्रियो, मूर्तिपूजा से बचे रहो। मैं बुद्धिमान जानकर तुम से कहता हूं: जो मैं कहता हूं, उसे तुम परखो। वह धन्यवाद का कटोरा, जिस पर हम धन्यवाद करते हैं; क्या मसीह के लहू की सहभागिता नहीं? वह रोटी जिसे हम तोड़ते हैं, क्या मसीह की देह की सहभागिता नहीं? इसलिये कि एक ही रोटी है तो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं: क्योंकि हम सब उसी एक रोटी में भागी होते हैं… 1कुर 10:14–22
हम नई वाचा के फसह के द्वारा मसीह के साथ एक देह बने हैं; हम अब मंदिर हैं जहां पवित्र आत्मा निवास करता है। इसलिए, कुरिन्थुस के चर्च को भेजे गए एक पत्र में पौलुस ने कहा, “मूर्तियों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर के मन्दिर हैं।”(2कुर 6:16)
मूर्तियों के विषय में प्रथम चर्च के संतों और प्रेरितों के विचार आज इन अन्तिम दिनों में रहने वाले हम लोगों के लिए आदर्श बनते हैं और हमारा स्वर्ग तक मार्गदर्शन करते हैं। जब हम अपने अंदर मूर्तियां रखें या उनकी उपासना करें, तो पवित्र आत्मा हम में निवास नहीं कर सकता। जब पवित्र आत्मा हमें छोड़ता है, तब दुष्ट आत्मा हमारी आत्मा पर हावी हो जाती है। हमें मूर्तियों से दूर रहना चाहिए। जब हम अपने अन्दर से, यानी परमेश्वर के मन्दिर से सभी मूर्तियों को निकालें, तब पवित्र आत्मा हमारे अन्दर भर जाएगा और हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य बनाएंगे।