परीक्षा पर जय पाओ

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हम जो स्वर्ग की ओर विश्वास के द्वारा दौड़ रहे हैं, हमारे सामने कभी न कभी परीक्षाएं और बाधाएं आती हैं। जब हम इस परीक्षा पर विजयी होते हैं, तभी आत्मिक कनान, स्वर्ग तक सुरक्षित रूप से जा सकते हैं। लेकिन परीक्षा को न सह कर बीच में अपनी दौड़ को रोकें, तो स्वर्ग हम से दूर हो जाएगा।

हमारे अपने विश्वास को मजबूत करना और बढ़ाना भी महत्वपूर्ण है। लेकिन इससे ज्यादा यह जरूरी होता है कि परीक्षा पर विजयी होने की दृढ़ इच्छा रखकर अनन्त स्वर्ग तक लगातार दौड़ें। जब कोई मसीही जीवन शुरू करता है, उसी समय से उस पर परीक्षा आती है, और स्वर्ग जितना हमारे पास आता है, उतनी ज्यादा परीक्षा कठोर बनती है। आइए हम बाइबल के द्वारा पढ़ें कि केवल परमेश्वर पर विश्वास करना और हमेशा स्वर्ग पर आशा लगाना और सकरात्मक विचार से परमेश्वर पर भरोसा रखना ही, परीक्षा पर विजय प्राप्त करने का एकमात्र तरीका है।

जंगल में इस्राएलियों के जीवन से शिक्षा

उत्पत्ति ग्रंथ को पढ़ते हुए, हमें इस्राएलियों के इतिहास में एक रोचक कहानी मिलती है। जब याकूब पूरे परिवार के साथ मिस्र में जाकर बस गया, उसके परिवार वालों की संख्या सिर्फ 70 थी। लेकिन परमेश्वर ने उसे ऐसी आशीष दी थी कि उससे एक महान राष्ट्र बनाया जाएगा, इसके कारण 430 वर्ष गुजरने के बाद, जब इस्राएली मिस्र से निकल गए, उनमें से 20 उम्र के ऊपर वाले पुरुषों की संख्या 6 लाख थी। लेकिन जंगल में 40 वर्ष बिताने के बाद, कनान देश में प्रवेश करने से पहले, जब दूसरी बार उनकी जनगणना की गई, उनकी संख्या बिल्कुल भी नहीं बढ़ी, पर एक जैसी ही रही। 20 उम्र के ऊपर वाले पुरुषों की संख्या 6 लाख थी।

परमेश्वर की आशीष से, एक बार वे आश्चर्य रूप से बढ़ गए थे। परन्तु उनका विकास क्यों रोका गया? क्योंकि बहुत से लोग परीक्षा में पड़ कर जंगल में मर गए थे।

“… फिर तू उस सम्पूर्ण मार्ग को स्मरण रखना जिस पर इन चालीस वर्षों तक तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे इस जंगल में से इसलिए ले आया है कि वह तुझ को नम्र करे तथा जांचकर यह जान ले कि तेरे मन में क्या है और कि तू उसकी आज्ञाओं का पालन करेगा या नहीं। उसने तुझ को दीन किया, तुझे भूखा होने दिया और तुझे ऐसे मन्ना से तृप्त किया जिसे न तो तू और न तेरे पूर्वज जानते थे, कि तू जान ले कि मनुष्य केवल रोटी ही से जीवित नहीं रहता, परन्तु प्रत्येक उस वचन से जीवित रहता है जो यहोवा के मुख से निकलता है…। इस प्रकार तुझे अपने मन में जान लेना चाहिए कि जैसे कोई मनुष्य अपने पुत्र को अनुशासित करता है वैसे ही तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे अनुशासित करता आया है। इसलिए तू अपने परमेश्वर यहोवा की आज्ञाओं का पालन करके उसके मार्गों पर चलता रह तथा उसका भय मान।” व्य 8:1–6

जंगल इस्राएलियों को परीक्षाओं से परखने की जगह था। मिस्र से निकलते समय, सभी इस्राएलियों ने पूरी तरह से परमेश्वर पर भरपूर विश्वास किया। लेकिन हर प्रकार की बुरी स्थिति सामने आने पर, जंगल में वे परीक्षा पाते थे। वे कभी भूखे रहते थे तो कभी प्यासे रहते थे, और वे कभी–कभी छोटे रास्ते को छोड़ कर लंबे रास्ते पर चलते थे। उनके जंगल में यात्रा करने के दौरान, परमेश्वर उन्हें आज्ञा, नियम और व्यवस्था देता था और उन्हें आज्ञाकारिता सिखाता था, ताकि वह अपने उन लोगों को, जो उस पर पूरी तरह से विश्वास करते थे और उसका भय मानते थे, प्रतिज्ञा किए हुए कनान देश में ला सके।

यदि उन्होंने परमेश्वर पर सम्पूर्ण रूप से विश्वास किया होता, तो उन्होंने थोड़ी देर की कठिनाई को न सह कर और बेकार की बातों से चिन्तित होकर शिकायत न की होती। लेकिन उनका विश्वास इतना कमजोर था कि 40 वर्षों तक उन्होंने हर एक परीक्षा के सामने परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया। इसी कारण अधिकांश लोग जंगल में मर गए।

“… परन्तु फिर भी उनमें से अधिकांश से परमेश्वर प्रसन्न नहीं हुआ– वे जंगल में मर कर ढेर हो गए। ये बातें हमारे लिए उदाहरण ठहरीं कि हम भी बुरी बातों की लालसा न करें, जैसे कि उन्होंने की थी। … अत: जो यह समझता है कि मैं स्थिर हूं, वह सावधान रहे कि कहीं गिर न पड़े। तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े जो मनुष्य के सहने से बाहर है। परमेश्वर तो सच्चा है जो तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में पड़ने नहीं देगा, परन्तु परीक्षा के साथ साथ बचने का उपाय भी करेगा कि तुम उसे सह सको।” 1कुर 10:1–13

जब वे परीक्षाओं में पराजित होते थे, वे परमेश्वर की परीक्षा करते थे और उसके विरुद्ध शिकायत करते थे, और व्यभिचार, मूर्तिपूजा आदि दुष्टकर्म करते थे। अंतत: इससे वे सब नष्ट हो गए, और इस समय के दौरान, इस्राएल का विकास रोका गया। ये बातें जो जंगल में इस्राएलियों के साथ घटीं, हमारी चेतावनी के लिए लिखी गई हैं। इसलिए हमें अपने बीते हुए समय को याद करके स्वयं को पूछ लेना चाहिए कि आत्मिक जंगल जैसे मसीही जीवन जीते हुए, क्या मैंने परमेश्वर को पहला स्थान दिया है या नहीं। मैं निवेदन करता हूं कि आप इस्राएलियों की गलतियों से स्वयं को चेताएं और परमेश्वर को हमेशा प्रार्थना व याचना करते हुए परीक्षा पर विजयी होने का मजबूत विश्वास रखें।

परमेश्वर हमें हमारी सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में पड़ने नहीं देता, परन्तु परीक्षा के साथ साथ उससे बचने का मार्ग भी देता है। जब हम परमेश्वर की आज्ञा का पूरी तरह से पालन करें, और धन्यवाद व खुशी के साथ उसके पीछे जहां कहीं वह हमें ले जाता है चलें, तब हम परीक्षा पर विजयी हो सकेंगे।

परीक्षा पर विजयी हुआ यीशु

मत्ती ग्रंथ के अध्याय 4 में हम यह देख सकते हैं कि परमेश्वर ने शरीर में आकर, हमसे पहले परीक्षा का अनुभव किया और इस पर विजयी हुआ। हमारे पिता और माता ने सभी प्रकार की परीक्षा पर जय पाने का उदाहरण दिखाया है। इसलिए हमें भी हर समय हमारे सामने आती रही परीक्षा से ऊपर उठकर अनन्त स्वर्ग की ओर दौड़ना चाहिए।

“तब आत्मा यीशु को जंगल में ले गया कि शैतान द्वारा उसकी परीक्षा हो। जब वह चालीस दिन और चालीस रात उपवास कर चुका तब उसे भूख लगी। और परखने वाले ने निकट आकर उस से कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो आज्ञा दे कि ये पत्थर रोटियां बन जाएं।” पर उसने उत्तर दिया, “यह लिखा है, ‘मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा”।” तब शैतान उसे पवित्र नगर में ले गया और मन्दिर के शिखर पर खड़ा करके, उसने उस से कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है तो अपने आप को नीचे गिरा दे, क्योंकि लिखा है, ‘वह तेरे विषय में अपने स्वर्गदूतों को आज्ञा देगा, और वे तुझे हाथों–हाथ उठा लेंगे, कहीं ऐसा न हो कि तेरे पैरों में पत्थर से ठेस लगे”।” यीशु ने उस से कहा, “यह भी लिखा है: ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर”।” फिर शैतान उसे एक बहुत ऊंचे पर्वत पर ले गया, और संसार के सारे राज्य और वैभव को दिखाकर उसने कहा, “यदि तू गिरकर मुझे दण्डवत् करे तो मैं यह सब कुछ तुझे दे दूंगा।” तब यीशु ने उस से कहा, “हे शैतान, दूर हट, क्योंकि लिखा है, ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर को दण्डवत् कर– और केवल उसी की सेवा कर”।” तब शैतान उसे छोड़ कर चला गया, और देखो, स्वर्गदूत आकर उसकी सेवा–टहल करने लगे।” मत 4:1–11

जैसे इस्राएलियों ने जंगल में सबसे पहले, भोजन के कारण परीक्षा पाई थी, वैैसे ही यीशु ने भी 40 दिनों के

उपवास के साथ प्रार्थना करने के बाद, सबसे पहले खाने के कारण परीक्षा पाई। इस तरह खाने की समस्या, यानी आर्थिक समस्या, मनुष्य के लिए एक गंभीर परीक्षा है। लेकिन यीशु यह कहते हुए परीक्षा में स्थिर रहा कि ‘मनुष्य हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा” और उसने परमेश्वर की स्तुति की।

दूसरी परीक्षा में, शैतान ने यीशु को परमेश्वर की परीक्षा करने का प्रलोभन दिया। परन्तु यीशु इस पर ज़ोर देने के द्वारा परीक्षा में स्थिर रहा कि परमेश्वर हमारे आराधना करने का लक्ष्य है, न कि परीक्षा करने का। और तीसरी परीक्षा में, शैतान ने यीशु को संसार के सारे राज्य और वैभव देने का प्रलोभन दिया। परन्तु यीशु ने यह कहते हुए परीक्षा पर विजय पाई कि ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर को दण्डवत् कर और केवल उसी की सेवा कर”, और उसने परमेश्वर की महिमा प्रकट की।

जैसे शैतान ने यीशु के साथ किया, वैसे शैतान विभिन्न तरीकों से परमेश्वर के लोगों की परीक्षा करता है। वह कभी हमें आर्थिक समस्या पर दबाव देता है, और कभी परमेश्वर के सत्य और सामर्थ्य पर सन्देह करने के लिए, हमारे मन में शंकाएं उत्पन्न करता है, और कभी मन में सांसारिक वस्तुओं की कामना उत्पन्न करके, हमें ऐसा भ्रम में डाल देता है कि यदि परमेश्वर के नियम को न मानें तो इन सब वस्तुओं को ले सकते हैं। इन परीक्षाओं से गुज़रने का एक उपाय है, हमेशा परमेश्वर का भय मानना और केवल परमेश्वर को महिमा देना। यीशु ने ऐसे उपाय से विभिन्न परीक्षाओं से बचने का उदाहरण हमें दिखाया।

विश्वास के द्वारा परीक्षा पर विजयी हुए पूर्वज

आत्मिक जंगल में चलते हुए, हम पर कोई न कोई बोझ होता है। परमेश्वर ने हम पर बोझ लाद दिया है। कृपया विश्वास कीजिए कि यह हमारी आत्माओं की भलार्ई के लिए है। परीक्षा पर जय पाने के लिए विश्वास आवश्यक सद्गुण है।

“विश्वास ही से मूसा ने बड़े हो जाने पर फ़िरौन की बेटी का पुत्र कहलाना अस्वीकार कर दिया। उसने पाप के क्षणिक सुख भोगने की अपेक्षा, परमेश्वर की प्रजा के साथ दुख भोगना ही अच्छा समझा। उसने मसीह के कारण निन्दित होने को मिस्र के धन के भण्डारों की अपेक्षा बढ़कर समझा, क्योंकि वह प्रतिफल पाने की आस लगाए था।” इब्र 11:24–26

मूसा ने मिस्र के सारे वैभव को अस्वीकार किया, और इस्राएलियों के साथ दुख भोगना चाहा। क्योंकि उसकी आखें प्रतिज्ञा किए हुए सदा का ईनाम पाने की ओर लगी थीं। इस तरह जब हम विश्वास करते हैं कि सांसारिक धन और वैभव से ज्यादा परमेश्वर का आदर करना उत्तम है, तब हम परीक्षा पर विजयी हो सकेंगे।

“विश्वास के बिना उसे प्रसन्न करना असम्भव है, क्योंकि जो कोई परमेश्वर के पास आता है, उसके लिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि वह है, और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है। विश्वास ही से नूह ने उन बातों के विषय में जो उस समय तक दिखाई नहीं देती थीं, चेतावनी पाकर भय के साथ अपने परिवार के बचाव के लिए जहाज़ बनाया। इस प्रकार उसने संसार को दोषी ठहराया, और उस धार्मिकता का उत्तराधिकारी हुआ जो विश्वास के अनुसार है।” इब्र 11:6–7

नूह परमेश्वर के वचन पर आज्ञाकारी रहा, और उसने जहाज़ बनाने में अपना पूरा धन, समय और प्रयास लगाया। हम अनुमान लगा सकेंगे कि उस जहाज़ की तैयारी करने के दौरान, कितने ज्यादा लोगों ने उसकी हँसी और निन्दा उड़ा दी होगी। फिर भी, नूह ने परमेश्वर के वचन पर सम्पूर्ण विश्वास और आज्ञापालन किया। ऐसा विश्वास रखने के द्वारा, संसार के सारे लोगों को नष्ट करने की विपत्ति से वह अपने परिवार के साथ बचाया गया।

इब्राहीम ने भी ऐसा ही किया। परमेश्वर ने इब्राहीम को पुत्र इसहाक की बलि चढ़ाने को कहा था। जब उसने इसे परम आज्ञा समझ कर पूर्ण रूप से पालन करने का तय किया, तब परमेश्वर ने उसे परीक्षा से छुड़ा लिया और बड़ी आशीष दी। इस तरह जब हम परमेश्वर पर परम विश्वास रखते हुए उसका आदर करते हैं, तब हम किसी भी प्रकार की परीक्षा और दुख पर विजयी हो सकते हैं। हमें ऐसी शिक्षा देने के लिए परमेश्वर ने विश्वास के पूर्वजों के जीवन का वर्णन बाइबल में किया है।

सकरात्मक विचार की शक्ति

जो परीक्षा में फंस गया है, वह सकरात्मक चीज को नकरात्मक सोच से देखता है, और नकरात्मक चीज को और ज्यादा नकरात्मक सोच से देखता है। लेकिन जो परीक्षा में स्थिर रहता है और सफल होता है, वह सब चीजों को सकरात्मक सोच से देखता है।

मूसा ने कनान देश का अध्ययन करने के लिए कुछ व्यक्तियों को भेजा था। वहां से वापस आने के बाद, जबकि दस व्यक्तियों ने नकरात्मक सोच से यह कहा, “वे बहुत शक्तिशाली हैं, उनके सामने हम टिड्डियों के समान छोटे हैं”, यहोशू और कालेब ने सकरात्मक सोच से यह कहा, “परमेश्वर हमारे साथ है, तो हम लोग उन्हें सरलता से हरा देंगे”। इस तरह के सकरात्मक विचार के द्वारा, वे सब परीक्षाओं से बच सके। अंतत: 6 लाख पुरुष जिन्होंने दस व्यक्तियों के साथ नकरात्मक विचार किया, वे सब जंगल में नष्ट हो गए। और यहोशू और कालेब ने जिन्होंने किसी भी स्थिति में परमेश्वर पर परम विश्वास किया और उसका भय माना, कनान देश में प्रवेश किया। इस तरह के लोगों को अनन्त स्वर्ग जाने की अनुमति है।

विश्वास का जीवन जीते हुए, हम कभी–कभी ऐसे लोगों से मिलते हैं जो शिकायत करते हैं। वे हमेशा नकरात्मक सोच से स्वयं को परीक्षा में डाल देते हैं, और आसपास के सभी लोगों को भी परीक्षा में डाल कर, उन्हें नाश की ओर साथ ले जाते हैं।

इसलिए हमें उस बात पर ध्यान नहीं लगाना चाहिए जिससे हमारा विश्वास खत्म होता है। अनन्त स्वर्ग जितना निकट आता है, हमें विश्वास में उतना निकट परमेश्वर के पास जाना चाहिए।

हमारे चर्च में एक पादरी इतनी अच्छी सेहत और स्वास्थ्य बनाए रखता था कि उसे कभी जुकाम नहीं लगा। लेकिन एक बार शरीर में दर्द के साथ गम्भीर जुकाम से वह बीमार पड़ गया। वह अपने जीवन में पहली बार बिस्तर पर बीमार पड़ा। तब अचानक, उसे उन सदस्यों की बहुत याद आई जो पहले बीमारी से परेशान हुए थे। इससे पहले, जब कभी सदस्य बीमार होता था, तो वह बिल्कुल अनुभव नहीं कर सकता था कि वह कितना पीड़ित है। लेकिन खुद बीमार होने के बाद, वह बीमार सदस्यों के मन को बहुत कुछ समझ सका।

यदि वह हमेशा स्वस्थ रहा होता, तो कभी बीमार व्यक्ति के मन को न समझा होता। परन्तु उसने खुद दुख का अनुभव किया और सकरात्मक विचार से अपने प्रति परमेश्वर की योजना को खोज पाया, जिससे वह सदस्यों को पहले से अधिक प्रेम दे सका।

परमेश्वर कभी–कभी हमें परीक्षा में रहने देता है। इसका कारण यह नहीं है कि वह हमारी बुराई चाहता है। परमेश्वर हम से कितना प्रेम करता है? हमें बचाने के लिए उसने अपने मांस को टुकड़े करके चीरने का अत्यंत दुख भी सहा, और वह सब कुछ बलिदान कर रहा है। हमें महसूस करना चाहिए कि हमें कठिन और मुश्किल स्थिति में रखने के पीछे, हमारी भलाई के लिए परमेश्वर की योजना छिपी है। यदि हम सकरात्मक विचार करें कि हमारे आत्मिक विकास और फलन के लिए, परमेश्वर ने हमारे सामने परीक्षा और बाधा रखी है, और जब हम परमेश्वर को प्रत्येक परिस्थिति में धन्यवाद प्रकट करें, तब हम परीक्षा पर विजयी होकर, सुरक्षित रूप से अनन्त स्वर्ग जा सकेंगे।

एक लाख चवालीस हजा.र व्यक्ति परमेश्वर के पीछे पीछे जहां कहीं वह जाता है चलते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति परम भरोसा रखते हैं। इसी कारण वे संसार के असंख्य लोगों में से, प्रथम फल के रूप में बचाए जाएंगे।

मटर का अंकुर नहीं, मटर की वनस्पति बनें

अब प्रथम फलों को एकत्रित करने के लिए, परमेश्वर आत्मिक खेती कर रहा है। जब फलों को खाद की जरुरत होती है तो खाद देता है, और जब बारिश–वायु की जरुरत होती है तो बारिश–वायु देता है। ये सभी प्रक्रियाएं हमें सुन्दर फल बनाकर स्वर्ग के खलिहान में ले जाने के लिए हैं।

मटर के अंकुर और पेड़ को सोचिए। वे एक ही बीज से अंकुरित होकर बढ़ते हैं। लेकिन दोनों जगह का वातावरण अलग होने से अलग फसल बनते हैं। मटर का अंकुर गर्म कमरे में रखा जाकर, दिन में कई बार पानी से सींचा जाता है। न तो उसका कोई प्राकृतिक दुश्मन होता है और न ही उसके बढ़ने में उसकी मेहनत या दुख होता है। इसी वजह से वह कोई फल पैदा नहीं करता।

जो एक बीज से है, वह रूखे–सूखे खेत में बोया जाता है। जब वह अंकुरित होकर बढ़ता है, बहुत सारी परीक्षाओं का सामना करता है। प्राकृतिक दुश्मन की धमकी, तेज़ बारिश–वायु, तीखी धूप आदि कठिनाइयों को सहता है और पानी का स्रोत खोजने के लिए कड़ी मेहनत से जड़ निकालते हुए बढ़ता है। इसलिए वह बाद में ऐसा मटर का पेड़ बनता है जो दस गुणा, सौ गुणा फल पैदा करता है।

जब हम इस उदाहरण को देखते हैं, तब हमें एहसास होता है कि परीक्षा हमारे विकसित होने और फल पैदा करने में कितनी मदद देती है। अंगे्रजी में कहावत है, “No pain, no gain”, जिसका अर्थ है कि बिना दुख के कुछ प्राप्त नहीं होता।

चाहे कोई भी सदस्य हो, यदि वह बीते हुए दिनों की याद करे, तो दुखदाई और असहनीय स्थिति का अनुभव कभी–कभी किया होगा। लेकिन समय बीतने पर यदि हम अपने दुखी दिनों की याद करे, तो हम थोड़ा बहुत समझ सकते हैं कि परमेश्वर ने हमारी आत्मा के विकास के लिए हमें उस स्थिति में रखा था। और हम महसूस कर सकते हैं कि हमारे लिए दी गई सभी परीक्षाओं की घड़ी, वास्तव में, एक आधार और सीढ़ियां थीं जिन पर चढ़ने के द्वारा हम वह बनें हैं जो आज हम हैं।

परीक्षा के सामने खड़े होते समय, जब हम परमेश्वर पर परम विश्वास करें, और प्रत्येक स्थिति को सकरात्मक विचार से देखें, और शिकायत करने के बजाय, धन्यवाद करें, तब निश्चय ही परमेश्वर हमें परीक्षा से छुड़ाएगा और हमें अच्छा परिणाम देगा। आइए हम विजयी होने की भरपूर कोशिश करें, ताकि किसी भी प्रकार की परीक्षा और कठिनाई हमें पराजित न कर पाए। मैं आप, 144,000 भक्तों से आशा करता हूं कि परमेश्वर का भय मानें और परमेश्वर की महिमा करें और परमेश्वर पर परम भरोसा करके पूरी तरह से उसका पालन करें, ताकि आप सारी परीक्षाओं पर विजयी होकर अनन्त स्वर्ग में जा सकें।