मेरा पहला प्रेम अंत तक बना रहे

इनचान, कोरिया से युन ह्यन सुक

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चूंकि मैं अपने माता–पिता की दूसरी संतान थी, इसलिए मैं कभी इसकी कल्पना नहीं कर सकती थी कि मैं पहली सन्तान की भूमिका निभाऊंगी।

मगर जब मैं पंद्रह साल की थी, और जब मेरी बड़ी बहन की, जो मुझसे ज्यादा उम्र की थी, शादी हो गई, तब मुझे अपने चार छोटे भाई–बहनों की देखभाल करनी पड़ी।

उस समय के दौरान मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई और इसलिए मेरे माता–पिता हमेशा मजदूरी के सिलसिले में बाहर रहते थे। तो मुझे उनके बदले घर का सारा काम संभालना पड़ता था। जैसे ही मैं स्कूल से वापस आती थी, मैं आपस में घर का काम बांट लेती थी और सारे काम को जल्दी से निपटा लेती थी। मैं अपने सबसे छोटे भाई को जो मुझसे दस साल छोटा था, पूरे समय अपनी पीठ पर उठाए रखती थी। अनेक किशोर कहीं घूमकर मौज–मस्ती करते थे, लेकिन मेरे पास इन सब के लिए कोई समय नहीं बचता था।

यहां तक कि जब मैं बीस साल की हो गई, मेरी हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया। मैं अपने छोटे भाई–बहनों की देखभाल करती और घर का कामकाज करती थी और इतना ही नहीं, मुझे अपने कमाए पैसे को अपने छोटे भाई–बहनों के लिए खर्च करना पड़ता था, ताकि वे विश्वविद्यालय में जा सकें और शादी करके बस सकें। छोटे भाई–बहनों के बड़े होने पर मेरी हालत थोड़ी बेहतर होने लगी, लेकिन मुझे अपने बुजुर्ग माता–पिता के बदले पैसे कमाने पड़ते थे।

हालांकि मैं हमेशा व्यस्त रहती थी, लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे हर समय अपने अन्दर खालीपन का एहसास होता था।

मैं सोचा करती थी कि क्यों मैं पैदा हुई और क्यों यहां मैं बेहद मुश्किल और संघर्षमय जीवन जी रही हूं।

मुझे लगता था कि परमेश्वर मेरे सवालों का जवाब देंगे।

जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, मैं अपनी दोस्त की दी गई बाइबल पढ़कर पहले से ही यह जानती थी कि परमेश्वर के वचन बहुत बढ़िया हैं। मगर चूंकि मैं वचनों का गहरा अर्थ नहीं जान सकती थी, मुझे हमेशा वचन की प्यास रहती थी। मैंने अपनी प्यास बुझाने के लिए कई धार्मिक किताबें या दार्शनिक किताबें पढ़ी थीं, लेकिन किसी से भी मुझे कोई मदद नहीं मिली थी।

जब आत्मा के प्रति मेरी जिज्ञासा अपने चरम पर पहुंच गई, तब मैंने खुद अपने कार्यस्थल के पास स्थित चर्चों में से एक चर्च को चुना और वहां चली गई। मैंने हर शाम को उस चर्च में जाकर बाइबल का अध्ययन किया और जीवन का वास्तविक अर्थ समझने की कोशिश की। हालांकि मैंने वहां के लोगों के साथ घुल–मिलकर अच्छा समय बिताया और उनके साथ बाइबल का अध्ययन किया, पर मेरे भीतर का खालीपन नहीं मिट गया।

निराश और बेचैन होकर मैंने तीन दिनों तक बहुत सवेरे उठकर परमेश्वर से प्रार्थना करने का फैसला किया। मैंने अधिक तीव्रता से परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरी मदद करें ताकि मैं उनके वचनों को अच्छी तरह समझ सकूं और उनकी सच्ची सन्तान बन सकूं।

सवेरे की प्रार्थना के तीसरे दिन, मैं अपनी बड़ी बहन के ब्यूटी पार्लर गई और वहां मैं एक युवती से मिल पाई जिससे मैं पहले भी कई बार मिला करती थी और कुशल क्षेम पूछा करती थी। उस दिन हेयरस्टाइल बनवाने के दौरान, हम बातचीत करते हुए पहले के मुकाबले एक–दूसरे के अधिक करीब आ गईं। अगले दिन मैं ड्यूटी समाप्त करके उससे फिर मिली और उसके साथ रात का खाना खाया। मैं उसके साथ इधर–उधर की बातें करती रही और मुझे पता चला कि वह चर्च ऑफ गॉड में जाती है, और कुछ देर बाद मैं उसके साथ चर्च ऑफ गॉड गई।

जब मैंने चर्च ऑफ गॉड में बाइबल का अध्ययन किया, तब मैं उस सत्य को जानकर दंग रह गई जिसे मैंने पहले कभी न तो सुना था और न ही देखा था। जब मैंने बाइबल के द्वारा पुष्टि की कि हमें अवश्य ही सब्त का दिन मनाना चाहिए, तो यह सोचकर मेरे रोंगटे आश्चर्य से खड़े हो गए कि रविवार की आराधना जिसका मैं पालन कर रही थी, परमेश्वर की नजरों में बिल्कुल बेतुकी बात थी।

अगला दिन सब्त का दिन था। मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के नया जन्म पाया और परमेश्वर की सन्तान बन गई।

सिय्योन स्वर्ग के समान था। जैसे मैंने चाहा था, मैंने जी भरकर परमेश्वर के वचन पढ़े, और थोड़ा–थोड़ा करके मेरी आंखें खुल गईं। जब मैंने आत्मिक दुनिया के बारे में समझ लिया, मेरी आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे क्योंकि परमेश्वर ने मेरे पुराने सारे सवालों का जवाब दिया।

मैंने अपने मन में कहा, “मैं अब महसूस कर सकती हूं कि क्यों मैं ऐसा मुश्किल जीवन जीती थी!”

वह सारा समय जो मैंने बिताया था, परमेश्वर से मिलने के लिए था। यदि मैंने मुश्किल जीवन न जिया होता, तो मैंने न तो कभी परमेश्वर के बारे में सोचा होता और न ही उन्हें ढूंढ़ा होता।

सभी मानव जाति ने स्वर्ग में पाप किया और वे इस पृथ्वी पर आकर दिन प्रतिदिन दुख से भरा जीवन जी रहे हैं, इसलिए परमेश्वर से मिलना जरूर उनके पूरे जीवनकाल में एकमात्र अर्थपूर्ण बात होगी। सच्चे परमेश्वर का एहसास करने के बाद जो खुशी मुझे महसूस होती है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। जब मैंने एहसास किया कि मेरे आत्मिक माता–पिता ने मुझ पापी को बचाने के लिए अपना बलिदान किया है, मैं हर आराधना के दौरान अपने आंसुओं पर काबू नहीं रख पाती थी।

जैसे ही परमेश्वर का प्रेम मेरे हृदय में बस गया, मैं स्पष्ट रूप से जान सकी कि मुझे क्या करना चाहिए। चूंकि मैंने जाना कि परमेश्वर मेरे लिए इस पृथ्वी पर आए हैं, इसलिए परमेश्वर के लिए जीना मुझे उचित महसूस हुआ। मैं अपने पूरे मन से प्रचार करना चाहती थी ताकि जितना संभव हो सके अधिक से अधिक लोगों को परमेश्वर का प्रेम पहुंचा सकूं।

गिम्फो शहर में शिफ्ट होने के बाद, मैंने थोड़ा–थोड़ा करके अपने आत्मिक सपने को पूरा किया। नए क्षेत्र में मैं जिस किसी से भी मिली, उसे मैंने यह आशा करते हुए मेहनत से प्रचार किया कि स्वर्गीय पिता और माता का प्रेम उनके हृदय को छू सके। शादी के बाद मैंने अपने पूरे परिवार की परमेश्वर की ओर अगुवाई करने के लिए पूरी तरह कोशिश की। सिय्योन में जो कुछ भी काम था उसे मैंने एक आशीष मान लिया और परमेश्वर के मंदिर की बड़ी बारीकी से देखभाल करने में पूरा मन लगाया। साथ ही मैंने स्वर्गीय परिवार के सदस्यों के साथ आपसी सौहार्द, भाईचारा और प्रेम बांटा। मेरे प्रयासों को देखकर परमेश्वर ने मुझे बहुतायत से फल उत्पन्न करने की अनुमति दी।

सिय्योन स्वर्गीय परिवार के सदस्यों से भर गया। हमारे चर्च ने गिम्फो के अन्य क्षेत्र में नई शाखा खोली, और मैं कुछ भाई–बहनों के साथ जो सुसमाचार की नई भूमि जोतने की कोशिश कर रहे थे, अक्सर इनचान के गांगह्वा में जाया करती थी।

और कुछ सालों के बाद मैं गांगह्वा में रहने चली गई। वहां गांगह्वा चर्च ने पहले से अपनी दूसरी शाखा खोल दी थी। चूंकि एक नया मंदिर स्थापित किया गया था, इसलिए वहां आशीष पाने के लिए मेरे पास बहुत सारे मौके थे, और वह क्षेत्र ऐसे अच्छे फलों से भरपूर था जो परमेश्वर का इंतजार कर रहे थे। एक बुजुर्ग दंपति था जिसे मैंने उस समय से लगातार सुसमाचार का प्रचार किया था जबसे मैं गिम्फो शहर में रही थी। कई सालों के इंतजार के बाद आखिरकार उन्होंने परमेश्वर को स्वीकार किया।

उस समय जब मैं उनसे पहली बार मिली थी, वे प्रोटेस्टैंट चर्च के लोगों से बहुत निराश हुए थे, इसलिए उन्होंने अपना मन नहीं खोला था। लेकिन उन्हें परमेश्वर के वचन सुनना पसंद होता था, इसलिए मैं हमेशा उन्हें बाइबल के वचन बताती थी।

वे परमेश्वर के पास आने से हिचकते थे। लेकिन गांगह्वा में नया सिय्योन स्थापित होने के बाद अगले साल फसह के पर्व से पहले, जब मैं उनसे मिलने को गई, वे हमारा इंतजार कर रहे थे और उन्होंने कहा कि अब वे परमेश्वर को ग्रहण करने के लिए तैयार हैं।

“स्वर्गीय पिता और माता को धन्यवाद!”

यह वह पहली बात थी जो उन्होंने परमेश्वर की सन्तान के रूप में पैदा होने के बाद हमसे कही। उस समय मैंने मन ही मन परमेश्वर के प्रेम को महसूस किया जो एक आत्मा को भी छोड़े बिना सब को बचाने की बड़ी अभिलाषा करते हैं चाहे उसमें कितना भी लंबा समय क्यों न लगे।

जब गांगह्वा में सदस्य चालीस से भी कम थे, सुसमाचार का काम शुरू हुआ। लेकिन जब पिछले साल पतझड़ के पर्वों के द्वारा हमें मंदिर का विस्तार करने के लिए आशीषित किया गया, हर सदस्य का जोश और अधिक तीव्रता से जल उठा। मैं इससे बहुत खुश थी कि मैं परमेश्वर के द्वारा चलाए जा रहे सुसमाचार के कार्य में भाग ले सकती हूं। सुसमाचार का कार्य करते हुए मैं सीख सकी कि कैसे प्रेम करना है और कैसे आज्ञापालन करना है, और साथ ही मैं हमेशा परमेश्वर पर भरोसा रखने के लिए अपने विश्वास को मजबूत कर सकी।

एक कागज का टुकड़ा है जिसे मैं हमेशा अपनी डायरी में रखती हूं। उसमें एक वाक्य लिखा है जिसे मैं हमेशा अपने मन में रखना चाहती हूं।

“मेरा पहला प्रेम अंत तक बना रहे!”

जब भी मौका मिलता है, मैं उसे निकालकर देखती हूं और उस खुशी के पल को याद करती हूं जब मैंने स्वर्गीय पिता और माता से मिलकर अपनी आत्मा के मूल को समझा था।

सुसमाचार के पथ पर चलते हुए कई बार मैंने तो मुश्किलों का सामना किया है। एक आत्मा को बचाने का काम उतना आसान नहीं है जितना दिखाई पड़ता है। जब कभी मैं उस आत्मा से मिलती थी जो सत्य का पालन करने से हिचकती थी, मेरा हृदय जलकर राख हो जाता था, और पूरा जोश लगाने पर भी और ज्यादा मेहनत करने पर भी थोड़ा परिणाम मिलता, तब मुझे निराशा और बेचैनी महसूस होती थी।

मगर जब भी मैं इस तरह की मुसीबत से गुजरती हूं, मुझे अंत में हमेशा आशीष मिल जाती है, ठीक उन दिनों की तरह जब मैं अपनी दुख से भरी युवावस्था के अंत में सच्चे परमेश्वर से मिली थी।

अब मैं सिर्फ परमेश्वर पर भरोसा रखने का संकल्प रखती हूं। यह बिल्कुल उस संकल्प के समान है जो मैंने विश्वास में अपना पहला कदम रखते समय लिया था। मुझे लगता है कि जब कभी मैं धीमी गति से समझती थी, और जब कभी अधीर और परेशान होती थी, परमेश्वर मुझे “पहले प्रेम” की याद दिलाना चाहते थे।

विश्वास के शुरुआती दिनों में मैं बस इस बात से बहुत खुश थी कि मैं स्वर्गीय पिता और माता से मिली हूं, और मैंने और कुछ भी नहीं चाहा था। शुरू में मैंने परमेश्वर को अपना सब कुछ माना था और सिर्फ परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने का संकल्प लिया था। मैं अपने उस पहले संकल्प को नहीं भूलूंगी। मैं परमेश्वर की इच्छाओं का पालन करते हुए स्वर्गीय पिता और माता के प्रति अपना पहला प्रेम अंत तक बनाए रखूंगी।